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विजेता पृथ्वीराज का अन्तिम बुद्ध में इन्दी किये जाने पर भी उससे बदला लेकर अपने प्राण-ल्योग करना इस कीर्ति-काव्य में ‘निर्बह-सन्धि’ है।

विभिन्न कथा संघ-बद्ध इस काव्य के अचूल रूप से सन्धियों में निबद्ध नहीं पाया जाता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसकी कथा के क्रम में नायक के उत्तरोत्तर जीवन-विकास का ध्यान रखा गया है परन्तु इतना होने पर भी विशेषता किंवा अनोखापन यह हैं कि उनमें से अनेक स्वयं-स्वतंत्र, पूर्ण और पूर्वापर सम्बन्ध से रहित इस ढंग की हैं कि उनके हटा लेने से शेष कथानक में कोई व्याघात नहीं पड़ता। इन विभिन्न प्रस्तावों में दी हुई पूर्ण कथाओं के चित्रण में एक ही प्रयोजन की साधिका उन कथाओं का अध्युवत किसी एक प्रयोजन के साथ सम्बन्धित होने वाला व्यापार अथात् सन्धियों का निर्वाह अवश्य ही कुशलता पूर्वक किया गया है। उदाहरण के लिए हम ‘शशिवृत्ता समय पचीस’ लेंगे।

इस समय की कथा का प्रारम्भ करता हुआ। कवि कहता है कि एक ग्रीष्म के उपरान्त वधु-काल में पृथ्वीराज के दिल्ली-दरबार में देवगिरि का एक नट आया और उसने वहाँ की राजकुमारी शशिवृता के विषय में पूछे जाने पर कहा कि उज्जैन-नरेश कुमुज्ज' के भतीजे वीरचंद से उसकी सगाई के लिये ब्राह्मण भेजा गया है परन्तु उसको यह सम्बन्ध प्रिय नहीं है। फिर नष्ट का राजकुमारी का रूप वर्णन—

कहै सु नट राजिंद। ब्रह्म आमोदक्क दिन॥
चंद कला मुई कंज। लच्छि सहजहँ सरूप तन॥
नेंन सु मृग शुक नास। अधर बर बिंब एक्क मति॥
कंठ कपोत मृनाल भुज। नारंगि उरज सति॥
कटि लेक सिद्ध जुग जंघ रँभ। चलत हंस गति गयँद लजि॥
सा नृपति काज न मिय तरुनि। मनों मेनिका रूप सजि॥ २६,
कह गुन बरनौं राज कहिं। कुंअरी जय नाथ॥
विधना रचि पचि कर करी। मनुं मेंनिका समाथ॥ २७,

‘सुख-सन्धि’ का विलोभन है जिसे सुनकर पृथ्वीराज का आसक्त होकर उससे विवाह करने का विचार―

सुनि राजन्न लगो ओतानं। लग्गे मीन केतु कद बानं॥
कहै नट सों राजंन बेर प्रेमं। महं सरापन सा करहि सु केभं॥ २८,
‘उपक्षेप’ है। नट का उत्तर कि जो मेरे किये होगा उठा न रखूँगा―
जौ मुझ कीयौ होइ है। तौ करि हौं नृप इंद।। २६,