पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/७२

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‘परिक्रिया’ है।

हंस रूपी गन्धर्व की शशिवृता से वीरचन्द की अयोग्यता—
तिहि सु दई मातु पितु बंधं। सो तुम जोग नहीं बर कंधं॥७३,

का उल्लेख करते हुए कहना कि उसकी आयु एक ही वर्ष की है इसी से इन्हें ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।

तेम रहै वर बरष इक्क महि। हय गय अनत भुभिक्त हैं समतहि ।।
तिहि चार करि तुमही पै आयौ। करि करुना यह इन्द्र पठायौ।।७४,

‘युक्ति’ है। तथा शशिवृता द्वारा उचित वर बतलाने की अभिलाषा प्रकट करने पर हंस का कथन कि दिल्ली के महा पराक्रमी चौहान तुम्हारे योग्य हैं। जिनके सौ सामंत हैं और जिन्होंने ग्रज़नी-पति ग़ोरी को युद्ध में बन्दी बनाकर दंड लेकर छोड़ दिया है―

दिल्ली वै चहुबान महा भर। सो तुम जग चिन्तयौ हम बर॥७६
संत सामंत सूर बलकारी। तिन सम जुद्ध सु देव बिचारी॥
जिन गहियौ सर वर गज्जन वै। हव गय मंडि छंडि पुनि हिय वै॥७७,

‘समाधान’ है।

हंस से पृथ्वीराज का शशिवृता से मिलने का संकेत-स्थल पूछना और उसका उत्तर―

कह सँभरि वर हंस सुनि। कह जहों संकेत॥
कोन थान हम मिलन है। कहन बीच संमेत॥ १९९
कह यह दुज संकेतं। हो राज्यद धीर ढिल्लेर्स॥
तेरसि उज्जले माघे। ब्याहन बरनीय थान हर सिद्धि॥२००,

तथा पृथ्वीराजर का आने की वचन देना―

तब राजन फिरि उच्चरै। हो देवस दुजराज॥
जो संकेत सु हम कहिय। सो अधी त्रिय काज॥२०१,

‘प्रतिमुख-सन्धि’ है।

देवगिरि के राजा भान को अपनी कन्या के प्राण देने के संकल्प के विचार से गुप्त रूप से पृथ्वीराज को निमंत्रण और देवालय में शशिवृता की प्राप्ति का समाचार―

यों सु सुनिय नृप भान नैं। पुत्र प्रलय व्रत लीन॥
चर पिष्षिय चहुआन पै। जद्वव मोकल दीन॥ २६५
मुक्काए मति वंतिनी। नृप कागद लै हथ्थ॥
पूजा मिसि बाला सु भर। संभु यान मिलि तथ्थ॥२६६;