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तथा पृथ्वीराज के सामंतों का उत्साहित होना ( छं० २६७) और कावे का प्रोत्साहन कि गन्धर्व विवाह शूर वीर ही करते हैं―

सार प्रहारवि भेवो। देवो देवत्त जुद्धयौ वलयं॥
गंध्रव्वी प्रति ब्याहं। सा ब्याहं सूर कलयामं॥२६८,

'गर्भ-सन्धि' है, जिसमें अंकुरित बीज का विस्तार हुआ है। इसी के अन्तर्गत देवालय में शिव-पूजन हेतु गई हुई शशिवृता की पृथ्वीराज से मिलन हेतु स्तुति का भी प्रसंग है―

उतरि बाल चौडोल तैं। प्रीति प्रात छुटि लाज॥
शिवहिं पूजि अस्तुति करी। मिलन करै प्रथुराज॥ ३५७

सात सहस्त्र कपट वेश धारी सैनिकों सहित पृथ्वीराज का देवालय में घुसकर पूजन करती हुई सशंकित और लजित शशिवृता को लेकर चल देना―

दिठ्ठ दिठ्ठ लग्गी समूह। उतकंठ सु भग्गिय॥
निष लज्जानिय नयन। मयन माया रस पग्गिय॥
छल बल कल चहुआन। बाल कुँचरप्पन भंजे॥
दोष मिट्टयौ। उभय भारी मन रंजे॥

चौहान हथ्थ बाला गहिय। सो ओपम कविचंद कहि॥
मानों कि लता कंचन लहरि। भत्त बीर गजराज गहि॥ ३७४
बीर गत्ति संधिय सुमति। वृत्त अवृत न जाइ॥
घरी एक आवृत्त रषि। सुबर बाल अनुराइ॥ ३८२,

जिसके फल स्वरूप चौहान की सेना का राजा भान और कमधज्ज की संयुक्त वाहिनी से युद्ध ( छं० ३८३-७७२) 'अवमर्श-सन्धि' है जिसमें 'संफेट', 'विद्रय', 'शक्ति', 'व्यवसाय', 'द्युति', 'विरोधन’, ‘प्ररोचना' आदि मिलते हैं।

‘अनंछित्ति अंगं बरं अत्तताई। भई जीत चहुआन प्रथिराज राई।७७३’

से 'निर्वहण-सन्धि' का प्रारम्भ होता है जिसका 'ग्रथन' कमज्ज वीरचंद के प्रति निढदुर राय के इन वाक्यों से होता है कि पृथ्वीराज बाला को लेकर चले गये अब किस लिये युद्ध ठाना है―

परे सुभर दोऊन दल। निढ़्दुर देष्यौ बंध॥
कोन भुजा बल जुध करै। मुनि कमधज्ज अमुंद्ध॥ ७७४
बाला लै प्रथिराज गय। गहिय बग्ग कमधज्ज॥
रोस रीस विरसोज भय। रह बाजे अनवज॥ ७७५,

में मिलता है। 'निर्णय' और 'प्रशस्ति' सूचक निम्न छन्द हैं जिनमें