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यादवराज द्वारा शेष डोलियाँ पृथ्वीराज को देने तथा चौहान की प्रशंस का उल्लेख है--

षूब राजे प्रथिरज । खूब जैचंद बंध बर।। षूब सूर सामंत । यूब नृप सेन पंग बर ।।
षूब सेन ढंढोरि । पूब झोरी करि डारिय ।।
षूब बेत विधि गाम । वाम गंगा पथ झारिय ।।
आसेर आस छंडिया नृपति । विपति सपति जानीय भर ।।
सुठिहार राज प्रथिराज कौ । धरे सबह चौंडोल घर ।। ७७७

इन परत पत्तौ सुग्रह । सुवर राज प्रथिराज ।।
हब गये दल बल नथत बर । रंभ सजीव काज ।। ७८१
तपय सु नरपति दिल्ली । दीह दी पद्धर राजे ।।
जै संगै क्रत कामं । सा देवं सोइयं देहिं ।। ७८५
दीहं पास रूवं । सारूवं भूपयो सब्बं ।।
जे नष्डै ते मंगै । देवानं देवय दीहं ।। ७८६

रसों के अन्य कई प्रस्तावों में सन्धियों का उपयुक्त ढंग से निरूपण किया जा सकता है।

{ ५ } बारहवीं शती के दिल्ली और अजमेर के शासक, ऐतिहासिक वीर महाराज पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जिस दिन जन्म हुआ....गजनी नगर भग्न होने लहा, अन्हलवाड़ा पट्टन में सेंध लग गई, धरा का भार उतर गया और युग-युग तक उनका यश अमर हो गया--

जे दिन जनम प्रिथिराजे । घरिंग बह कनवजह ॥
ज दिन जनम प्रिथिराज । के दिन गज्जन पुर भज्जह ।।
ज दिन जनम प्रिथिराज ! त दिन पट्टन वै सद्धिय ।।
ज दिन जनभ ग्रिथिराज । त दिन मन काल न षद्धिय ।।
ज दिन जनम प्रथिराज भौ । त दिन भार धर उत्तरिय ।।
बतरीय अंस अंसन अहम । ही जुगें जुग बत्तरिय

'उनका जन्म होते ही शिखरों ( पर्वतों ) के दुर्गा लड़खड़ाने लगे, भूमि में भूचाल आ गया, शत्रुओं के नगर धराशायी होने लगे और उनके बाढ़ तथा कोट टूटने लगे, सरिताशों में ज्वार आ गया, भूमिपालों के चित्त में चमक पैठ गई और में भौचक्के रह गये, खुरासान में खलबली पड़ गई और वहाँ की रमणियों के गर्भ पात हो गये, वीर वैताल गणों के मन प्रफुल्लित हुए और देवी रणचंडी हुंकारने लग'----