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में लिखा है कि वे मूढ़ बुद्धि वाले पराभव को प्राप्त होते हैं जो मायात्रियों के साथ मायः नहीं करते, शठ जन प्रवेश करके उसी प्रकार बात करते हैं जिस प्रकार बाण खुले हुए अंगों में--

व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवे

भवन्ति मायाचिषु ये ने मायिन: ।

प्रविश्य हिनन्ति ठास्तथाविधान-

संवृताङ्गाग्निशिता इवेव: ।। १-३०

दसवीं शताब्दी के अपभ्रंश के महाकवि 'अहिरामैरु पुष्कदंत' (अभिमानमेर पुष्यन्त ) ने अपने 'महापुराण' में दुर्जनों की निन्दा करते हुए लिखा है कि गिरि कंदरा में घास खाकर रह जाना अच्छा है परन्तु दुर्जनों की टेढ़ी भृकुटियाँ देखना अच्छा नहीं---

ते सुरिणवि भणइ अहिमाणमेरु, वर खजइ रिपरि कन्दर कसेरु । गड दुज्जनभङ हा बंकियाई, दीसंतु कलुससावं कियाई ।।

और इसी शती के 'घवाल'( धनपाल ) ने अपने 'भविसयतकहा' काव्य की पतवार विद्वत् जनों को यह कहकर सौंप दी कि मैं मन्द बुद्धि बाल गुणों से हीन और व्यर्थ का व्यक्ति हूँ; हे बुध जन, तुम मेरी काय कथा को सँभाल लेना--

बुहथण संभालमि तुम्ह तेत्यु, हड मन्द बुद्धि शिरगुण णित्यु ।।

तथा दुर्जनों के लिये कह दिया कि पराये छिद्र देखना ही जिनका व्यापार है उन्हें कोई किस प्रकार गुणवान कह सकता है, वे श्रेष्ठ कवियों में त्रुटियाँ ढूंढते हैं और महान् सतियों को दोष लगाते हैं--

पछिसएहिं बाबरु जासु.गुणवंतु कहिभि किं कवि तालु ।।

१८८५ ई० के कवि बिल्हण ने अपने सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य 'विक्रमांकदेवचरितम' में लिखा है कि विद्वानों की श्री जड़ों ( मुख ) की प्रसन्नता के लिये नहीं होती क्योंकि मोती में छिद्र करने वाली शलाका टॉकी का काम नहीं दे सकती; और दुर्जनों को इसमें कोई दोष नहीं क्योंकि उनको स्वभाव ही गुण के प्रति असहिष्णु होना है जैसे चन्द्र के वरई के समान उज्ज्वल मिश्री भी कुछ लोगों के लिये ३प की पात्र होती है--

व्युत्पत्तिावनिकोविदापि न ३जनाय क्रम जडानम् ।।
न मौक्तिकच्छिद्रक ताक, प्रगल्भते कमीण टुङ्किकाया: ।। १-१६....