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न दुनानामिह कपि दोषस्तेषां स्वभाबसि गणासहिष्णुः ।।

द्वेष्यै बामपि चन्द्रखण्ड विपाडुरा पुण्डुक शर्करापि ॥ १-२०

'वंदऊँ संत असज्जन चरना' बाझे मानसकार ने सुजन समाज सकल न खानी को प्रणाम करके परहित हानि लाभ जिन केर' की भी स्तुति की और फिर दोनों की विषम भिन्नता दिखाकर कह ही तो डाला कि दुष्टों के पापों तथा अवगुणों की तथा साधुओं ( सज्जनों ) के गुणों की गाथायें दोनों ही अथाह और अपार सागर हैं---

खल अध अगुन साधु गुन गाहा ।

उभय अथार उदधि शवगाहः ।।

सोलहवीं शती तक के उपर्युक्त प्रमाण स्वत: सिद्ध करते हैं कि चंद के काल में सज्जन-दुर्जन की वर्णन-परम्परा अवश्य ही माननीय रहीं होगी । 'पृथ्वीराज रासो' के प्रारम्भिक प्रस्ताव में कवि अपने पूर्ववत कवियों की स्तुति करके अपनी रचना को उनका उच्छिष्ट ( जूठन ) कहता है--'तिनै की उचिट्ठी कवी चन्द भख्खी' ( छं०१०, स०१ )। और चौहान की प्रशस्त कीर्ति के सम्मुख अपनी बुद्धि की लघुता का वर्णन करता हुआ (छं०८४२-४९, स०१ ) अपने को पूर्वं कवियों का दास बताकर कहता है कि जो कुछ उनके द्वारा कहा जा चुका है उसी की मैं अपने कहां

लगि लघुता बरनवौं । कविन दास कवि चन्द ।।

उन कहि ते जी उब्वरी । सो कहाँ करि छंद ।। ५०,

'मैं सरस काव्य की रचना कर रहा हूँ जिसे सुनकर दुष्ट जन उपहास करेंगे जैसे हाथी को मार्ग पर जाते देखकर कुते स्वभाव इंश भूँकने लगते हैं'--

सरस काव्य रचना रचौं । खुल जन सुनि न हसँत ।।

जैसे सिंधुर देखि मग | स्वान सुझाव भुसंते ।। ५१,

तथापि 'सज्जनों के गुणों ( की गुण ग्राहकता ) के कारण में तन मन से प्रफुल्लित होकर अपनी रचना कर रहा हूँ क्योंकि 'नहियूकभयाल्लोक: कॅथत्यिजतिनिर्भय':---

तौ पनि निमित्त सुजन गुन । चिये तन मन फूल ।।

जूका भय जिय जानि कैं। क्य डारियै दुकूल ।। ५२,

'रासो को तत्व श्रेष्ठ विद्वान् जितना अच्छा बता सकता हैं उतना अच्छा दुर्मति नहीं, अल्तु उसे सद्गुरु से पढ़ना चाहिये'--


१—ष्ट्रजन्माङ्गदीपिका, नृ० २६;