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मुरिय न श्रित चालु । धरिय रस रोस कन्ह हिय

(ब) 'इच्छा या अनिच्छा से अपनी सीमा को प्रमाणित करती हुई जो सैनिकों और पथिकों को समान रूप से मिली । निशा का आगमन जानकर नगाड़े बज उठे। धूल के धुंध ऊपर उठकर लौटे जिससे कुएँ भर गये' :

छुटी छंद निच्छंद सीमा प्रसानं ।
मिली ढालनी माल राही समानं ।।
मान नीसांन नीसान धूत्रं ।
धुभ्रं धूरिनं मूरिनं पूर कुशं ॥ १०७, स० २७;

( स ) 'सन्ध्या काल आया, आकाश में चन्द्रोदय हुआ और दो प्रहर रात्रि बीती :

सांझ समय ससि उग्ग नभ । गइ जामिनि जुग जाम ॥;

(द) बजी संझ घरियार । सार बज्यौ तन झंझर ।।
अनु कि वज्जि झननंक । उनकि वन टोप सु उच्चर ।।
अनल अग्मि सम जपिंग । जेन धजि बंधि जग्गा ।।
मनु द्रप्पन में बैठि । नेत बडवानल जग्गा ।।

धन स्यांम पीत रत रंग बर । त्रिविधि वीर गुन बर भरिय ।।
हर हर गंठिठ रुठिठ उमां । किम उतारि पच्छो घरिय ।। ४९५,स०२५

युष्पदंत ( पुष्पदन्त ) ने अपने 'यदि पुराण' में ऋतु-वर्णन बड़ी कुशलता से किया है। उसी प्रसंग में सन्ध्या का भी अनूठा वर्णन है --'दिनेश्वर का अस्त होना पथिकों ने शकुन पूर्ण समझा । जैसे दीपक जलाने की बात कही गई वैसे ही प्रियतमाओं के आभरण प्रदीप्त हो उठे । जैसे सन्ध्या राग युक्त ( लालिमा पूर्ण ) हुई वैसे ही वेश्याओं का राग बढ़ा । जैसे भुवन संतप्त हुए वैसे ही चक्रवाक भी व्याकुल हुए । जैसे-जैसे दिशा-दिशा में तिमिर बढ़ने लगा वैसे-वैसे दिशा-दिशा में व्यभिचारिशियाँ जारों से संयोग करने लगीं । जैसे रात्रि में कमतिनी मलिन होकर मुकुलित हो गई वैसे ही विरहिणी का सुख भी मुकुलित हुआ। जिस घर के कपाट बंद हो गये उसे बल्लभ (पति) रूपी सम्पत्ति प्राप्त हो गई। जिस प्रकार चन्द्रमा ने अपनी किरणों का प्रसार किया वैसे ही प्रिया ने अपने हाथों से अपनी केश राशि बिखरा दी। जिस प्रकार कुवलय के पुष्प विकसित हुए उसी प्रकार मिथुन - कीड़ा ने भी विकास पाया ... पाया.....