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लखनऊ का कब्र

मैं दिलको बेकरारी से ऊपर कहे हुए चंद कलमे कहता हुआ दयाए गोमती के किनारे टहल रहा था, महीना जेठ का था और रात अधिसे ऊपर पहुंच चुकी थी । इतने ही में किसी लम्बे कद् वाले आदमी ने मेरे सामने कर ललकारा और भिड्क कर बोला,कम्बखत तु कौन है जो इस अंधे और आधीरात के वक्त यहाँ शोर गुल मचा रहा हैं ! शायद चोट्टा होगा ?"

मैंने उस अजनबी की यै वैदंगी बातें सुनकर कहा,--अब भले मानस ! भला चोट्टे भी कहीं शोर शुरू मचाते हैं। वे तो चुप चाप मलया के घरों में इस वक्त सेंध लुगाते होगे, न कि मुझ मज़दे की तरह इस उजाड़ और सूनसान जगह में अपने दिल के फफोले फोड़ते होंगे।"

मेरी ये पत्थर के कलेजे को भी पानी करने वाली बातें सुनकर उस अजनबी ने कहा, बस, बस, हरामज़ादे ! चुप रह तू ज़रूर चोट्टा है, बल्कि चोट्टों का सरदार है। कंबख्त, हरामी के पिल्ले ! वे फौरन यहाँ से चलाजा, वरनः अश्वी तेरे सर को धड़ से जुदा कर दूंगा।'

या खुदा । बिना वजह, बेकसूर मुझे उस कमीने ने इतनी गालियां डाल व तो मुझसे न रडा गया और मैंने अपनी कमर में लटकती हुई तल्खार को स्थान से, खेंच कर कड़ाई के साथ कहा,--सुन, बे, कमीने ! तेरी बातों में मैंने यह बखूबी जान लिया कि, वें रहनों का सरदार गिरहकटों की मददगार है, मेरे यहाँ ने से जरूर ते काम ३ खटल पहुँचा होगा, तभी तू दिला जह मुझसे हुजत करने पर अभद्रा हुआ है। सुनवे, काफिर, बेईमान बल, अब अगर अङ्गदी खैर चाहता है तो फौरन मेरी आखों से दूर हो जा, बस तू तो मुर्दे मेरा सर या खाक काटेगो, लेकिंन मैं अभी मुझे दो टूक करके यही डाला। "

मेरी वाले सुनते ही उस अजनवी ने झटकर मुझपर सवार का झार किया, लेकिन खुद फजल ने मैने उस वार को खाली देकर .. उसे पर अपनी बार किया, जो अपना पूराकमकर्यां और कम्बख्त