पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
॥ श्री:॥
लख़नऊ की कब्र

या

शाहीमहलसरा

___________

उपन्यास

पहिला बयान ।

"दिलाराम, प्यारी, दिलराम ! तू कहाँ है। अफ़सोस, सद अफ़सोस, प्यारी ! तु मुझ ग़मज़दै को इस हालत में छोड़कर कहीं जा छिपी है ! प्यारी, दिलाराम! तू तो ऐसी न थी, तू तो कभी ख़्वाब में भी मुझसे जुदा नहीं होती थी, लेकिन, प्यारी मुझसे क्या खता हुई, जो इस तरह बग़ैर कहे सुने तू न जाने कहाँ चली गई, या किस लिये मुझसे किनारा कर बैठी ! या रब ! मेरी दिलरुबा, दिलाराम कहाँ है? आह ! वह तो खुद बख़ुद मुझसे कभी दूर होने वालीं न थी, ज़रूर उस पर कोई आफ़त आई होगी और वेबसी की हालत में किसी बल के पंजे में गिरफ़तार हुई होगी । अफ़सोस अब मैं उसे कहाँ ढूँढू कहां जाऊ, क्या करूं और क्यों कर अपने जख़मी दिल को दिलासा दूं । आज पूरे दो महीने हुए, मेरी दिलरुबा, दिलराम का पता नहीं है, न जाने क्या हुई, कहाँ गई, क्यों गई, या किस वाला में मुवतिला हुई । दिलाराम, प्यारी, दिलाराम ! तेरे बग़ैर अब तो यही जी चाहता है कि--

इस ज़ीस्त से बिहतर है,अब मौत पदिल धरिए ।
जल बुझिए कहीं जाकर, या डूब कहीं मरिए ॥