पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| सत्रहवां बयान ।।.. . .. अफ़ताब गुरूब हो चुका था और शाम की स्याही अस्मान' पर धीरे २ फैलती जाती थी । गो, मैं एक कोठरी में था, लेकिन उसके ताक से आने वाले उजाले से इस बात का पता ज़रूर लगता था । मेरो कोठरी में खूब ही गहरा अंधेरा होगया था, इसलिये मैने उठ कर चिराग जलायों और नमाज़ पढ़ने लगा। ज्योंहीं मैंने नमाज़ से छुट्टी पाई थी कि वह नाज़नी आ पहुंची और मुझे अपने साथ लेकर उसी तब से अपनी उस कोठरी में पहुंची, जहाँ पर वह मुझे मई से लबोली वनाती थी । आज मुझे उसने अपने ख़ातिरखाह फिर औरत बनाया, लेकिन आज की लिबास, पोशाक, जेवर और बनाछ में बड़ी तैयारी थी। मुझे सवार कर उस परी पैकर ने फिर अपने तई रास्ता किया और जब सज धज कर हम दोन कादम आईने के सामने खड़े हुए तो अल्लाह ! अपनी खूबसूरती और नमकीनी को देखकर “ मैं दंग होम्या | यानी मेरी खूबसूरती और नज़ाकत उस नाज़नी.को खूबसूरती और नज़ाकत से किस्सीजे में कम न थी। आज़ उसने बहुत ही कीमती पेशवाज़ और जेवर पहिने थे। और मुझे भी पहनाये थे, लेकिन उसकी सजावई से भी सजावट कुछ कम थी। इस का सवच यह था कि मुझे उसने वैसेही ' कपड़े : गहने पहनाए थे, जैसे कि मोरछत वालियां पहनती हैं और उसले वैसे भड़कीले कपड़े गहने पहने थे, जैसे कि मोरयल चालियों की । अफसर के लिये मुनासिब थे। इसके बाद वह मुझे साथ लिये हुई कमरे से बाहर हुई और कमरे में ताला लगा कर किसी दूसरे रास्ते से चली । इस रास्ते से . भेर गुजर कभी नहीं हुआ था। उस वक्त रात के आठ बज गए थे। पाक कोठरी में जाकर उसने एक लालटेन जलाई और मुझे साथ,