पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/१२

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अजनबी के जेब से पाया था, और जो मेरी प्यारी दिलाराम की सूरत से बहुत मिलती जुलती नज़र आई थी । और उसे छुरे के देखने का भी मुझे उस वक्त निहायत ही शौक चर्राया हुआ था, क्योंकि उस पर कुछ इबारत खुदी हुई थी, जिसके जानने के लिये मैं निहायत बेचैन हो रहा था। लेकिन, वैसा मैं ने कर सका, यानी बत्ती न जला सका, क्योंकि एक नकाबपोश को मैंने अपनी तरफ आते हुए देखा ।

यह देखते ही मैं अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और सलवार के कब्जे को मज़बूती के साथ पकड़ कर उस नकाबपोश की तरफ़, जो अब मेरे बहुत नज़दीक पहुंच गया था, देखने लगा। मैं दिलही दिल में यह कहने लगा कि;-“यह दूसरी कौन बा आ पहुंची । क्या यह नकाबपोश उसी बदकार शख्स का साथी तो नहीं है, जो अभी मेरे हाथ से मारा गया है। ज़रूरं यह भी उसी का साथी ही होगा, चाहे इसने अपने कई नकाब के अन्दर छिपाया है। तो क्या इसे अपने साथों के मारे जाने की खबर होगई और यह मुझसे उसके खून का बदला चुका ने आया है। लेकिन नहीं, यह मुमकिन है कि इसे अपने साथी के मारे जाने का हाल मालूम होगया हो। खैर, न सही, लेकिन जब यह अपने साथी की जगह यहां पर मुझे पाएगा तो जरूर इसे मुझपर शक होगी और इसीलिये मुझे मुस्तैद रहना चाहिए।'

मैं येही सब बातें दिलही दिल में सोच रहा था कि वह नकाबपोश बिल्कुल मेरे नज़दीक गया और उसने धीरे से कहा,--"नज़ीर।"

अब तो मेरा ख़याल कुछ और ही होगया, यानी जिसे नकाबपोश को मैं मर्द समझे था, वह दूर असल एक बुडी औरत थी, जिसे उसकी आवाज़ से मैंने बखुबी परख लिया। तो, क्या उस बर्वजात को नरम नज़ीर है, जो अभी मारा गया है ! और क्या यह उसी की खोज में इसवक्त इस सूनसान जगह में आई है। किस्सहकोताह ! मुझे शरारत सूझी और मैंने चटपट उस नकाबपोश बुड्डी के सवालके जवाब में सिर्फ "ह" कर दिया ।