पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/१३

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शांहीमहलसरा

शायद अपने ख़़ातिरख्वाह जवाब पाकर उसने कहा,--"अफ़सोस आज तुझे निहायत परेशान होना पड़ा होगा । मैं अपने वादे पर यानी ठीक धक्तपर आती, लेकिन आज उसका कंबख्त शौहर शाम ही से उसके पास आ बैठा और अभी अभी वह चहु से टल है । इसी सबक से मुझे अपने ठीक वक्तपर यहां पहुंचने में देर हुई, क्योंकि मैं ही कर क्या करती और तुम्हें तेही जाती तो लेजाकर कहा था किसके पास 'बिठाती मगर खैर, अब रात एक पहर से ज़ियादह बाकी नहीं है. इसलिये आजही अवस्सुबह तुम्हारा वहाँसे हौटना गैरमुमकिन है इसलिये क्या तुम आज की बाकी रात, कल का सारा दिन और रात भर वहाँ रह सकते हो । अगर कोई हर्ज चाक न होतो मैं अभी अपने गुमराह तुम्हें ले चलने के लिये तैयार हूं, वरन कल ठीक वक्त पर यहां मौजूद रहना।

अय ग़जब । यह क्या मुआमिला है। या ख़ुदा ! बुट्टी क्या यह तो कोई अजीब बला नजर आई ! सचमुच, मैंने उसकी बातों का बिल्कुल मतलबे ने समझा पर इतना जरूर समझा कि यह वैचारी किसी और शख्स के धोके मुझसे ये सब बातें कह गई । तो क्या इसे उसी पाजी से मतलब थी, जो अभी मारागया ! ऐसा हो सकती है, क्योंकि जरूर वह अज्ञात यहाँ पर इसी बुडी की राह तकतर होगा, लेकिन जब उसने मुझे अहाँ पर अपनी राहमें कोटे के मिसल समझो तो लाचार, मुझसे उलझ पड़ा और दोज़स्वरसीदः हुआ। खैर, इस ख़याल को तो मैंने यहीं छोड़ा और कुछ अजीव तमाशे के देखने की जो धुन समाई तो चट्पटे मैंने बहुत ही धीमी आवाज़ से, जिसमें आवाज पहिचानी न जाय सिर्फ इतना ही कहा, "मैं चलने के लिये तैयार हूं।"

वल्लाह फिरतो अच्छी दिल्लम शुरू हुई। यानी उस मक्काबुड़ी ने मेरी आँखों पर पट्टी बाँधनी शुरू की। उसकी इस अजीब हर्कत से, गो, मैं दिलही दिलमें एक मर्तबः जरा हिचका, फिर आपही आप सोचने