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लखनऊ का कब्र

लगा कि,--"अजी ! हर्ज क्या है। एक बुढ़िया ही तो है, यह मक्कारा मेरा कर ही क्या लेगी, और तल्वार तो अभी मेरे कब्जे में हैं, ज़रा भी किसी किस्म का खुटका हुआ कि फौरन राह साफ़ कर डालूंगा।"

गुरज़ यह कि उसने अपने ख़ातिर ख़ाह मेरी आखों पर बखूबी पट्टी बाँधदी, जिससे सचमुच मैं अन्धा सा हो गया ।

फिर उसने एक, छड़ी का सिर मुझे थमा दिया और आप आगे ही मुझे उस तरह वहाँ से चली, जैसे अकसर बाजारों में मैंने उन मुहताजों को भीख मांगते हुए देखा है, जो अन्घे को लकड़ी पकड़ा कर अपने हमराह लिये फिरते हैं। "

मतलब यह कि वह अजीब बुड़ी मुझे ऊची नीची गडही में चढ़ाती उतारेती, धूमघूमने का चक्कर खिलाती हुई एक घंटे तक यहीं मुझे परेशान करती रही। अरे, आखें बंद रहने के यब मैं यह नहीं जान सकता था कि किस रास्ते ने मेरा गुजर हो रहा है, मगर इन मैं जरूर दिलही दिलमे-ग़ौर करता था कि जब नहीं कि वह चालक बुको मुझे थोड़ोसी राह में ही इस लिये बार बार घुमा रही है कि जिस मैने असली रास्ते का अन्दाज़ा न कर सकें। पर यह उनका सवाल महज़ गलत था, क्योकि आखें बंद रहने पर भी मैं अपनी अटकल और अंदाज़ मैं उसकी पेचीली राह को कुछ कुछ समझ गया था।

ख़ैर, खुदा, खुश करके उस शैतान बुडी की राह शायद पूर हुई और वह एक जगह पर ठहर गई, लेकिन-वह कौनसी जगह थी, हजार गौर करने पर भी मैं इस का अंदाज़ में कर सका। उसवक्त उस बुडी में मुझे ठहरा कर मेरे हाथ में छड़ी लेनी इस लिये मै नहीं जानकर था कि मुझे छोड़ कर वहा क्या करने लगी। ये कहाँ-गायब हो गई लेकिन नहीं, वह गायब नहीं हुई थी, और अगर हुईभी थी तो सिर्फ थोड़ीहीदेर के लिये । यानी मुझे वहीं पर ठहरने का इशारा करके और मेरे हाथ से छड़ी लेकर वही करने लगीं, यह में मैंने नहीं जाना पर उस वक एक हलकी सी आवाज वो मेरे कानो से जरूर सुनी जो कि अकसर किसी