पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/१६

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लखनऊ का कब्र

और कहा,--"जनबमियाँ, नज़ीर खां ! दोस्तमन ! मेरी बेअदयी मुआफ़ करना लाचारी ही ऐसी है कि मुझे तुम्हरी आंखों पर बदस्तूर अभी इतने सदमें पहुंचाने पड़े!"

मैने ज़रा गला दबा कर धीरे ले कहा,--'अजी,बी ! इस का कुछ ख़याल न करो !!

उसने कहा,--"अलहम्दछिलाह। ख़ैर अब जरा थोड़ी देर तुम यहीं ठहरे रहो, मैं केस मऊ तो तुम्हें अन्दर ले लूं मैंने मुख्तसर तौर पर सिर्फ, बेहतर कहकर उसकी बात हा जवाब दिया और वह शायद चली गई, क्योंकि उसी वक्त मैंने किसी दरवाजे के खुलने और भिड़ने की बहुत ही धीमी आहट पाई थी।

वह जगह जहां पर जुट्ठी मुझे नहीं छोड़ गई थी, कैसी थी, इस की जांच करने के लिये मैं जमीन में बैठकर अंधेरे ही में इसकी लंबाई चौड़ाई नापने लगा और थोड़ी ही देर की जांच में मैंने यह जान लिया कि यह कोरी आठ हाथ की लंबी चौड़ी चौकोर है और उसके चारो ओर एक बड़ा है, जिनमें ताले तो नहीं लगे हैं, पर वे बंद जरूर हैं, झील का फुगच किया हुआ है और दीवार भी पक्की है लेकिन वह कितनी ऊंची है, खड़े होकर हाय ऊचा करने पर भी इस्त्र बल कर अछाड़ा मैं कर सका, क्योंकि अधेरा ऐसा घना था कि गोया मैं स्वाही के दर्या में डुबो दिया गया होऊ।

जब तक में उस कोरी की नाप खोज करता रहा, मेरा ख़याल "बाटा हुआ था, लेकिन जब में उस शेख़ चिल्ली के खिलाड से फारिगर हुआ तो मेरे दिल में तरह के ख्याल पैदा होने लगे और उनसे सिर खाली करने के लिये मजबूत हुआ । क्योंकि उस ड़ी के आने मैं देर होने लगी, तो वह जल्द लौट आने का चांदाकर गई थी । गरज यह कि मेरी घबराहट बढ़ने लगी, दिल में कुछ कपकपी पैदा हुई, हिम्मत दिल का साथ छोड़ने पर अमादा हुई और जान एक अजीब उलझन में फंस गई। उस वक मेरे दिल में जो कुछ खयालात एक के