पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/१७

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शांहीमहलसरा

बाद दूसरे पैदा होने लगे थे, उसमें पहला यह था कि, “अय यूसुफ! तू तो अपने को अक़िल लगाता था, 'बस समझदार होकर यह तू ने क्या किया ! एक की जान ली,सो तो लीही, पर इस आफत की बुढ़िया के बकाबू में जान बूझकर तू ने अपने तई आप क्यों फसाया । अब बहुत देर नहीं है, जब कि तू किसी अजनबी नाज़नी के, या किसी के रूबरू पहुंचाया जायगा; और जङ यहां रोशनी में तू पहचाना जाअगा, या तेरी तलाशी लेने पर तेरे जेब में ये उस अजनबी की चीठी तस्वीर, छुरी और अशर्फीया बरामद होंगी, तो तुझ पर क्या गुजरे और कैसी कयामत पर होगी !!! अफ़सोस । 'तू भारी बला में आकर गिरफ्तार हुआ।"

मैं दिलही दिल में यही सोच कर कुछ बदहवास सा होने लगा था कि एकाएक, जो उस कोठरी के चारों बग़ल वाले वर्षों में से एक था, खुल गया और हाथ में मोमी शमानमदान लिये हुए उसने उस दुजे के चौखट पर एक घरीजमल को देखा; जिसकी उम्र अठाहर उन्नीस से ज़ियादह न होगा। कमसिनी के साथ ही साथ उसकी खूबसूरती, नज़ाकत, और नमकीन इस अवल दर्जे की थी कि जिसका जोड़ा शायद बहिश्त में दिखलाई पड़े लो वह नाज़नी उस वक्त ज़दोजी के काम का एक निहायत बस सब्ज ओ पहिरे हुई थी और उसके तन पर जड़ाऊ बड़ी तूफ़ास्थल के साथ अपनी अपनी जगह पर रौनक थे।

ये जितनी बातें में कह गया, उन्हें मैंने बात की बात में देख लिया था । क्योंकि ज्योही वह दर्वाजा खुला और शमादान लिए हुई वह जमाल चौखट के पास पहुंची कि मुझ पर नज़र पद्धते ही वह झंझकर त्यो बदलकर मुझे सिर से पैर तक देखने लगी । लेकिन यह कारवाई एकही लहजे में पूरी हो गई और उसने चौखट के बाहर निकल मुस्कुराकर मेरा हाथ थाम लिया और जिस वजे ने वह आई थी, मुझे सपथ लिये हुई अन्दर घुसी और भीतर जाकर इस दौरे को बंद करके उसने कुण्डे में ताला लगा दिया फिर