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लखनऊ का कब्र

उसकी कुंजी को अपनी कुर्ती के जेब में रख और मुझे लेकर वह एक बहुत ही लंबे चौड़े और निहायत सजीले कमरे में पहुंची।

वहाँ पर कई शामादान रौशन थे, जिन के उजाले में मैंने उस कमरे की नफ़ासत, सजावट, और खूबसूरती को अपनी बारीक नज़रों से बखूबी तौला, और तब मैंने यह समझा कि मैं इस वक्त जहां पर मौजूद हैं, यह जगह कोई मामूली जगह नहीं, बल्कि किसी बड़े भारी अमीर शख़्स ऐशगाह है।

कमरा चालीस पचास हाथ से कम लम्बा न था, और चौड़ाई उसको बीस पच्चीस हाथ से कुछ ज़ियादह न थी। लंबाई की सतह में उसके दोनो जानिव पांच पुचि दर्वाजा थे और चौड़ाई की तरफ सिर्फ तीन तीन कमरे में निहायत उम्दः और बेशकीमत कालीन बिछां हुआ था । जावजा हाथीदाँत और संगमर्मर के मेज़,कुर्सी चौकी और तिपाइयां कृतेने से सजी हुई थीं, जिन पर खेल खिलौने, शराब की बोतलें, प्याले, चौर शतरंज वगैरह सजे थे। संदली अलमारियों में निहायत उजिल्ददार शितों और शराब की बोतलें खड़ी हुई थीं। उम्दः२झाड,फ़ानूल,दोबारगीर वगैरह से कमरे की रौनक बहिश्व का सम दिखलाती थी और उस वक्त, जावं किं वह अंजनथी नब्ज़परी मेरा हाथ थामे हुई हैरत भरी निगाहों नीचे से ऊपर तक शायद अपनी बारीक नज़रों के पलड़े पर तौल रही थी। बड़े दो कद आईने हर एक दरवाज़के जवाब में, जरा दय से सूटकर खड़े किए गये थे लेकिन वहाँ पर जितनी मायाब और शोमत तसवीरें लगी हुई थीं, वह सिर्फ गदी ही । नहीं, बल्कि इसान के दिल पर बुरा असर पहुंचाने का दावा वही थीं। झरे के हर एक बजे पर रंगबिरंगे रेशंभो पर्दे पड़े होए थे और सचमुच ऐसी सूफियाना कमरा मैंने कभी ख्वाब में भी नहीं देखा था !

किस्सह कोताह ! जबतक मैं उस कमरे को देता रहा, वह पुरीजमाल मेरा हाथ पकड़े हुई मुझे धूरती रही, जिसे मैंने कनखियो से ज्ञान लिया था। अखीर में जब मैंने भी मुस्कुराकर उससे चार आँखें