पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/२०

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मैंने कहा,--अयं, शहेहुस्न ! तेरी क़ातिल आंखें हो या कम हैं जो तू तल्वार उठाने के सदमें को अपने ऊपर लेना गवारा करती है ! और अगर ऐसाही मंजूर हो तो,--

खुद गला का काटूं, अगर ख़ंजर इनायत कीजिए।
देखिए, दुख जायगी, नाजुक कलाई आपकी ।

मेरी शोख़ी का जवाब वह कुछ दिया ही चाहती थी कि एक घंटी के बजने की आवाज़ मेरे कानों में सुनाई दी, जिसके सुनते ही मैं तो मैं, वह परी मुझ से भी ज़ियादह घबरा गई। बड़ी फुर्ती से मुझे एक दरवाजे के पर्दे की आड़ में खड़ा करके सिर्फ इतना ही कई कर वह हट गई कि, यहीं चुपचाप खड़े रही ।

वह पर्दा,यो कुछ दबीज़ था, पर उस में के बूढे के जाल में ले मैं उस कमरे के बाहर कुछ कुछ ज़रूर देख सकता था । ग़रज़ यह कि ज्योही परीजमा पर्दै से हटकर एक आरामकुर्सी पर जाकर बैठी थी कि अदब से मुझी की और हाथं बाँधे हुई एक लौड़ी उसके सामने आ पहुंची और सिर का कर बोली,--सुबह होगया, हुजूर ! जहाँपैनाह जाफ़रनी कमरे में, तशरीफ लाए हैं और हुजूर को याद करते हैं।

यह सुनकर उस परी ने कहा,--"तू आगे बढ़, मैं अभी पोशाक बदल कर आती हूँ।”

इतना सुनते ही वह लौंडी तो सर झुकाकर वहां से चली गई और वह परीजमाल मेरे जानिब आने लगी। वह अपनी अरामकुर्शी पर से उठकर दोहीं चार क़दम मेरी तरफ बढ़ी होगी कि जहाँ पर मैं खड़ा था,और पीछे वाला दर्वाजा वे मालूम खुल गया और किसी ने बड़ी फुर्ती और आसानी से मुझे अपनी तरफ खैच लिया। यहाँ तक कि मैं जबतक अपने को सम्हालूं और यह जानू कि मुझे किसने बँचा, मेरे हाथ पैरी को किसी ने बड़ो कुर्ती के साथ कसकर बाँध दिया और फिर मै आखों पर पट्टी बाँधीं गई । इसके बाद दो शक्स जो शायद मर्द रहे होंगे, और जरूर वे मर्द ही थे, मुझे उठा कर न जाने किधर चले। पाव घंटे तक बराबर ऊपर नीचे चलते