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शाहमलहसरा

उतरते एक जगह पर जाकर उन्होने मुझे ज़मीन में उतारा और मेरे हाथ पाँव खोल दिए। इसके बाद जब मेरी आँखों की पट्टी खोली गई तो मैने अपने तई एक अंधेरे तहखाने में पाया, जहां की जमीन नम थी और खाट बिछौना तो दरकिनार, एक टुकड़ा टाड का भी वहाँ पर मौजूद न था, जिस पर मैं खड़ा होता, छैठता या आराम करती। उसके बाद मैंने क्या देखा कि वहीं पूर घही नकाबपोश बुडी हाथ में एक मनहूस चिरा लिये मेरे सामने पहुंची, जो मुझे इस अजीय भूलभुलैया में लेआआई थी !

उसने मुझे बेतरह झिड़कियां और गालियाँ दी और इतना कहती कहती वह फौरन उस तहखाने से बाहर निकल गई किं,--बेईमान, दगाबाज़, जालिये बदमाश ! अब त यहाँ बगैर लाने के तड़प तड़प कर मर और अपनी शोख़ी का नतीजा देख !"

अल्लाह ! यह क्या हुआ! आह! मैं किस बल में फंसा ! ओफ़ ! मैंने हरचंद उस वुडी को रोकना चाहा, लेकिन वह किसी तरह न रुकी और गाँलियां देती और दिया लेती हुई वहीं से चली । गई। उसके जाने पर उस् कत्र सखे अंधेरे तहखाने में मैं तनहई रह गया; और तब मैंने अपनी जेब टटोला तो अपनी कुरा चीज़ और तल्यार को ज्यों की त्यों पाया। अंधेरा हृद्द दुजें था, इसलिये मैने दीया जलाके के सामान को जेव से निकाल कर मोती जलाई और उसके उजाले में उस खौफ़नाक़ तहखाने में को, जो बहुत ही संग, गंदा, नमदार, और बदबू से भरा हुआ था; कैफियत' देखी और फिर इसे खयाल से बच्ची को बुझा कर मैं ज़मीनही में बैठ गया कि जिसमें सारी बत्ती अज ही ख़तम न होजाये, बल्कि उसले आखिरी दम तक काम लिया जालझे ।

इसके बाद में खुदा को याद करने और अपनी हालत पर ग़ौर करने लगा, और इस अंछ के समझने के लिये भी कोशिश करने लगा कि, अब आगे क्या होने वाला है।