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शाहीमहलसरा

वह तस्वीर बनाओं, जिससे दो पैसे मिलें, क्योंकि मैं अपनी फ़ैयाज़ी के सबब हमेशा मुफ़सिल बना रहता था ।

दूसरे यह किं--जिसने दिलाराम की यह तस्वीर बनाई, वह जरूर बहुत अच्छा भुसव्विर होगा, क्योंकि तस्वोर ऐसी ही साफ़ बनी हुई थी। लेकिन उसे दिलाराम के देखने का मौका कहां मिला!

तीसरे--अगर यह तस्वीर दिलाराम ही की हो, और ज़रूर उसी की है, तो ज़रूर यह तब उतारी गई है, जब दिलाम मेरे हाथ से जाती रही है। लेकिन इस तस्वीर में दिलाराम जैसी बेशकीमत पोशाक पहरे हुए हैं और वह जैसी खुश व खुर्रम ज़ अती हैं, उसका ऐसा होना, इस हालत में, जबकि वह मेरे पास है दूर की गई है, या तो बिल्कुल नामुमकिन हैं, या यह मेरी दिलरुवा दिलाराम ही नहीं, बल्कि कोई और हो नाज़नी है !!!

इस अख़ीर की बात पर मैंने बहुत ज़ोर दिया और बार बार अपने दिल को समझाया कि,--'यह मेरी दिलाराम नहीं है, लेकिन दिल ने मेरी एक न मानी और वह उस तस्वीर को दिलाराम की ही तस्वीर तसुव्बर करने से बाज़ न आया।

मैंने सोचा,--“तो क्या दिलाराम अथ किसी बड़े भारी अमीर की मुहब्बत में फंसकर मुझे बिल्कुल भूल गई है? और क्या अब वह मुझे छोड़कर इस कदर खुश व खुर्रम है, जैसा सुबूत कि उस की इस तस्वीर के तरीके से पाया जाता है !!!"

अल्लाह ! अल्लाह ! तो क्या मेरी दिलरुबा दिलाराम अब मुझे बिल्कुल भूलकर इस क़दर ऐश वो दौलत की चाट में पड़ गई। लेकिन उसकी तस्वीर से भज़ीर को क्या निस्बत!!! हाँ हो सकता है, और इसी सच से तो उसकी लाशं को पहचानकर मैंने उस पर थूका था !!!

अल्लाह !तो क्या मेरी दिलाराम के दिल में दग़ा थी ?क्या उस ने मेरे साथ दग़ा की!

यह सोचतेही मुझे ग़श सा आगया और मैं चक्कर खाकर वहीं