पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/३१

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मैंने पीछे फिर कर देखा तो दरवाजे का कहीं नामोनिशान भी न था और पत्थर की चिकनी दीवार नज़र आती थी !

वहाँ के पत्थर को उस परीजमाल ने क्योंकर हटाया, या फिर उसे क्योंकर बराबर किया, इसका हाल मुझे मुतलक न मालूम हुआ ! आने के वक्त वह क्यों कर उस पत्थर को हटा कर आई थी यह मैं नहीं देख सका था; लेकिन जाने के वक्त तो वह रौशनी दिखलाती हुई मेरे आगे थी, पर उस दोवार का पत्थर आप ही आप किस हिकमत से बराबर हो गया, इसका मतलब ज़रा भी मेरी समझ में न आया ।

उस ख़ौफनाक तहख़ाने से मुझे निकाल कर वह परीजमलं मुझे कैसी जगह में लेगई थीं, यह मैं उस वक्त में जान सका, क्योंकि मुझे अपने साथ उस कैदखाने से निकालते ही उसने अपने हाथ का शमादान गुल कर दिया, उससे मैं कुछ भी न देख सका ।

अंधेरा होने पर उस परीजमाल ने मेरे हाथ में एक पलीता और अग जलाने का सामान देकर कहा,“अजनबी ! तू इस पीते को जलाकर यहाँ की कुल कैफ़ियत जान सकेगा।”

इतना कहकर उसने क्या किया, यह मुझे नहीं मालूम; लेकिन फिर वैसे ही धमाके की आवाज़ मेरे कानों में आई, जैसी अभी मैं ने उस पत्थर के खोलने और बंद होने के चक्त सुनी थी।

आख़िर मैंने पलीता जलाया और उसकी रोशनी में देखा कि,--मैं एक बहुत ही संगीन गोल इमारत में हैं, जिसके हर चहार तरफ़ सिवाय मज़बूत और बेजोड़ पत्थर की दीवार के वज़ का कहीं नामोनिशान भी नहीं है। लेकिन मैं हैरान था कि हर तरफ से बंद इमारत के अन्दर मेरा दुम क्यों नहीं घुटता और मैं मजे में सांस क्यों कर ले सकता हूँ !

ख़ैर, मैंने घूम घूम कर उस गोल इमारत के हर एक कौने को टटोला, लेकिन मुझे इस बात का पता न लुगा कि यहाँपर का पत्थर ढोकर हटाया गया था।