पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/३५

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रूबरू गुज़रीं, लेकिन किसी दरख्वास्त पर भी कुछ गौर न किया गया। करे कौन ! वादशाह को तो ऐय्याशी से एक लहजः भी फुर्सत नहीं । धीरे २ दर्बार के खास २ लोगों में यह बात फैलने लगी कि,--"जो नौजवान और खूबसूरत शख्स गायब होते हैं, वे इशाहीमहलसरा' के अलावे और कहीं नहीं गायब होते हैं; और जो वहां गया, वह फिर जिन्दा वहाँ से बाहर नहीं आता। लेकिन ताज्जुब तो इस वातका है कि फिर उन कंबख्तों की लाशें क्या होती हैं ? क्या महल सरा के अन्दर ही वे तहेगोर की जाती हैं!”

“अल्लारज़ मेरे सिरप यह स्वफ्कानं सवार हुआ और मैंने इस बात को धक्का इरादा कर लिया कि मैं इस अम्रका, जरूर पता लगाऊँगा। मेरे दोस्तों ने मुझे हरचंद समझाया और इस खतरे से किनारे रहने की नसीहत दी, लेकिन, मैंने किसी की एक न सुनी और इस हिमाल का मज़ा अब में बखूबी चख रहा हूँ।

"गरज़ थे कि मैं हर शव को कुछ रात जाते ही अपनी सूरत बदल कर इधर उधर घूमा करता और रात रात भर इसी तरह सारे शहर में गश्त लगाया करतः। एक रोज रात के वक्त में यथि गोमती के किनारे टहल रहा था कि इतने ही में एक खब्बीस बुङ्की मेरे पास । आई और बोली,-- अगर ज़िन्दगी का मज़ा चखना है तो मेरे सात आ।"

"मैं तो यह चाहता ही थी, बस चट उसके पीछे हो लिया और कुछ दूर जानेपर उस शैतान बुड्डी ने मेरी आँखोंपर पट्टी बांधी और बुझे घंटों तक इधर उधर घुमाती फिराती शाहीमहलसरा के अन्दर गई । वहां पहुंचने पर भेरी अखि पर की पट्टी खोली गई; तब तो मैंने एक आलीशान कमरे के अन्दर, अपने रूबरू एक निहायत हसीन ज़िनी को मुहब्बत की नज़र से घूरते और मुस्कुराते देखा,दरअसल हि देहली वाली मुश्तरो रंडी के अलावे और कोई न थी।


"अखिर एक हफ्ते तक मैंने उस परीजमल के साथ खूब ही और इसे अपने कमरे के करीब ही एक बेमालूम