पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

तिलस्मी कोठरी में मुझे छिपा रखी । आठवें रोज़ जब मैं नींद में जागा तो मैंने अपने तई इस अजीब इमारत के अन्दर पाया। लेकिन शुक्रखुदा का है कि मेरी किताब मेरे सिरहाने धरी थी और कुलम मेरे चैब में मौजूद थी।

बस, आज चार दिनों से मैं इस अजीब तिलस्म के अन्दर कैद हूं, जिसमें कहीं पर भी दरवाजे का नामोनिशान नहीं है, और बहुत कोशिश करने पर भो मैं दर्वाजे का यता नहीं लगा सका हूँ अफसोस बगैर आबोदाने के चार रोज़ गुज़र गये और मैंने इस अर्से में यह किसी को सूरत में देखी। खैर अब मैं ज़रूर मरू', इसलिये नंतर ' देकर अपने खून को निकाल, उससे इस खत को मैं लिखकर इस किताब के अन्दर रख देता हूं, ताकि अगर मुझसा कोई वदनसीब यही आए और इस किताब को देख यहां से छुदने की तदबीर करे । बस, अब मैं खुदा की याद में मशगूल होता हूं और इस खत को पूरा करता हूं।'

अल्लाह, अल्लाह, मैं उस खत का मतलब समझकर निहायत परेशान हुआ और आंखों के सामने अपनी मौत को नाचते देख एक दम जडेज़ोर से चीख मार उठा, जिससे वह गोल इमारत गंज उठो! इतनेही में उस तिलस्मी मकान की दीवार का पत्थर अपनी जगह से दूर हुआ और उस राह से वही लौंडी मेरे लिये खानालेकर पहुंचीं। जो आज कई घंटे पहिले उस पराजमाल के बुलाने और उसकी याद गाह में आसमानी की लाश की खबर सुनाने आई थी।