पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/४९

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  • शाहीमहलसर * . ४ : ३चे देखा कि इस अजीब तमाशे को देखकर जितना मुझे ताज्जुब हुआ। यः, मैने अदाज़ ही से समझलिया कि उतना ही ताज्जुब उस (दूसरी) आई हुई परीजमाल को भी हुआ होगा 1 क्योंकि उसने आते ही मुझ से जैसे जैसे सवालात करने शुरू किये थे, उनसे यहींबू निकलती थी। उसने आते ही मुझसे पूछा,--हैं ! यह क्या मामला है ? - मैं, यह तो मैं भी जानना चाहता हूँ ?”

वह,-..* यह कौन थी ?” | मैं, जो तुम हो ।” | वह,-"हां, सूरत शकल से तो वह मुझसी ही जान पड़ती थी, लेकिन दरअसल वह कौन औरत थी ? | मैं,-"यह में क्या जानू ? | वह, वह यहां क्यों कर आई ? ' मैं,–“जिस तरह तुम आई १५ वह,-" वह तुम्हें क्यों मारा चाहती थी ?" | में,--* इसलिये कि मैं उसके साथ इश्क़मज़ाकी नहीं किया वाहता था ।” | वह,-" हूं, लेकिन ये कागज़ के टुकड़े कैसे हैं ? . मैं, यह एक परचा था, जिसपर वह मुझसे दस्तखत कराया शहती थी।” | यह सुनकर उसने उन टुकड़ों को उठाकर मिलाना चाहा, ताकि इस परचे का मज़मून पढ़ाय, लेकिन उसके टुकड़े इतने बारीक. थे, के जिनका मिलाना गैरमुसकिल था । यह देखकर उसने उन्हें फिर नमीन में फेंकदिया और कहा,“ इस परचे में क्या लिखा था?" । इस पर मैंने उससे झूठमूठ घात बनाकर कहा,--* इसमें उस इकमज़ाकी की पोख्तगी के लिये मेरे दस्तखत की जरूरत थी ।” वह,-* ऐसा ! तो यह उस शादी का गोया इकरारनामा था ?” | मैं,-हां, ऐसाही था ।”