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धीरे धीरे शेख़ घराने वालों को प्रताप दिन दिन बढ़ता गया इनमें से कई सूबैदारी के ओहदे तक पहुंचे।

सन् १५९० ई० के पहिले "अवध के सुबेदार" की ख़िताब किसी को नसीब नहीं हुई थी, क्योंकि पहले पहल इसी सन में शाहंशाह अकबर ने हिन्दुस्तान को २२ सूबों में बाँटा था, जिस में एक अवध भी था।

उस सन से बहुत काल तक बराबर सभी सूबेदार बदलते रहे यहां तक कि तीन चार वरस से अधिक कोई सुबेदार सूबेदारी के पद पर न ठहरने पाता और वह सूबेदारी शाही दरबार के विश्वास पात्र अमीरों को मिलजाती थी।

एक शताब्दी से कुछ अधिक काल बीतने पर सन १७३२ ई० में अवध के राजप्रबंध में बड़ा भारी उलट फेर हुआ। मैशपुर का अमीर सादतख़ाँ, जिस का दिल्ली के शाही दरबार में दबदबा बहुत बढचढ़ा था और जो बङ्गारत के ओहदें का खाह था, अवध का सूबेदार बनाया गया।

सआदत खाँ के पहिले जितने अवध के सूबेदार होकर आले, वे अयोध्या में ( फ़ैजाबाद ) में ही रहते, और उसे अवध की राजधानी समझते थे। उसी रीति के अनुसार आदतखाँ भी फैज़ाबाद में रहने लगा, उसने वहाँ एक किला इनवाया और लखनऊ के लिकना (या लेखना) किले का नाम बदल कर उसका नाम ' मच्छो भवन ! रक्क्षा, जहां उस समय मछुओं का बाज़ार लगता था ।

लखनऊ की छंटा सआदतखाँ को कुछ ऐसी भाई कि वह फैज़ाबाद की अपेक्षा लखनऊ में विशेष रहने लगा और उसने चाहा कि फैजाबाद के बदले लखनऊ ही को अवध की राजधानी बनाया जाय।

सन् १७३८ ई० में जब दिल्ली के तल पर मुहम्मदशाह बाद्शाह था,नंदिशाह ने दिल्ली पर चढ़ाई की थी। उस समय दंशाह को सहायता के लिये सअदितखा सेना लेकर दिल्ली की ओर चली था, फिर वह लौट कर न अश्य । यद्यपि उसको अतिरिक इच्छा