पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/६

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यह थी कि 'कुछ दे ले कर नादिरशाह से मेलकर और अपने पुराने बैरी निज़ामुलमुल्क को दिल्ली दर से बाहर करदे, पर वह लड़ाई के बाद दिल्ली के समीप पहुंची और अपना मंसुवा पूरी होती न देखें । उस ने ज़हर खाकर अपनी जान देदी।

उस के बाद सन् १७३९ ई० में उसका दामाद और भतीजा मंसूर अली खां (सफ़दरजंग) अवध का सुबेदार हुआ । यह भी अयोध्या (फैज़ाबाद) में ही रहता था और इसने दिल्ली दर में खूब मेलजोल बढ़ा रक्खा था, जिसका नतीजा यह हुआ कि जिस औहदे के लिये संदर्तअलीखाँ तरसता मर गया, वह मंसूरअली को मिल गया, अर्थात् सन् १७४७ ई० में मंसूरअलीखाँ बादशाह देहली का वज़ीर बनाया गया। उसी समय से अवध के सुदार को पद्वी जाती रहो और उस के बदले में अवध के हो किम 'नवाब वज़ीर' कहलाने लगे।

सन् १७५३ ई० में सफदरजंग के मरने पर उसका बेटा शुजाउद्दौला अवध के तख़्त पर बैठा। इसने अपने राज्य अबध) की बड़ने उन्नति की । सन् १७७५ ई० में जब यह मरा, इसका वैदी कि इौला नवाब हुआ और तख्त पर बैठते ही यह अपना फ़र लखनऊ में उठा लाया, तब से लखनऊ अवध की राजधानी कहलाने लगा और फैज़ाबाद धीरे धीरे उजड़ता गया। इसके समय में लखनऊ शहर बड़ी रौनक परथा और बड़े बड़े हज़ारों मकान गोमती नदी के दोनों किनारों पर बन गये थे।

जब वहमरा, अपने बनवाए हुए बड़े इमामबाड़े में गाड़ी गया। उसके लड़कावाला कोई ना था, इस लिए उसका पालन (पोष्यफुल) ब्रज़ीर अली केवल छः महीने लखनऊ के तख पर बैठ 'सका। परंतु अंगरेजों ने उसे अयोग्य समझ कर ही से उतार दिया, जिससे वह बहुत बिगड़ा और कुछ शोहदों के साथ, इधर ,उधर बलवा मचाता हुआ धनारस में अपहुंचा और बनारस के ‘मिस्टर चेरो को मारकर उसने अपनी अयोग्यता को सदा के लिए सिद्ध कर दिया।