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लखनऊ की कब्र

रहने के सबब हाथ पैर बंधे रहने पर भी मैं पानी के ऊपर जहाज़ी गोले की तरह बहने लगा। लेकिन इतना मैं बखूबी समझ चुका था कि इस तरह मैं बड़ी मुश्किल से घंटे दो घंटे तक पानी पर ठहर सकूंगा और ज्योंही दम उखड़ी, डूकर मर जाऊंगा । आह ! उस वक्त की मुसीबत का धयान मैं क्योंकर करू ।

लेकिन, उस हालत में भी मैं अपने मालिक को न भूला था और हर लहज़े उसको अपनी मदद के वास्ते पुकार रहा था । थोंही पानी पर चहते बहते आधे घंटे भी न बीते होंगे कि मैं क्या देखता हूं कि किसी जानिब से एक जलता हुआ काफूर का ढेला पानी में आ गिरा, लेकिन हाथ पैर बंधे रहने के सबब मैं घूम फिर नहीं सकता था कि इस बाल कीच करता कि वह हेला, किधर से आया, या उसे किसने फेंका । मैं यही अगर मगर सोच रहा था कि पानी में किसी किस्म की छप छप की आवाज़ हुई, जैसी कि 'डांड' खेने से होती है। यह आवाज सुनकर तरह तरह के खयाल मेरे दिल में पैदा होने लगे, लेकिन सिवाय खयाली पुलाव पकाने के और मैं कुछ भी न जान सका, क्योंकि एक तो अब काफूर का डेल बुझगया था और दूसरे मैं किसी जानिय को घूम फिर नहीं सकता था।

इतने ही में फिर एक जलता हुआ काफूर को ढेला पानी में गिरा और सब उसके उजाले में मैंने देखा कि एक छोटी सी किश्ती मेरी तरफ आ रही है। यह देखकर मैने तहेदिल से खुदा का शुक्रिया अदा किया । इतने ही में एक बहुत ही धीमी आवाज़ मेरे कानों में गई जिसका मतलब यह था, “क्या तुम अभी तक होश हवास में हो?”

मैने भी उसी तरह धीरे से कहा,--"हां, अभी तक तो, खुदा के फ़जल से मैं सांस लेरहा हूं।”

इतना सुनते ही उस किश्ती पर जो शख्स था, उसने एक तेज़ छुरी से रस्सी काटकर मेरे हाथ पैरों को आज़ाद कर दिया, फिर धीरे : से कहा,--“इतनी ताक़त मुझमें नहीं है कि मैं तुम्हें इस किश्ती पर