पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/६८

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  • मऊ का कृत्र* :

दसवां बयान । | मेरी आंखें जब खुलीं, सबेरा हौगया था, क्योंकि आखें मलतेही मेरी नज़र अपने सामनेवाली दीवार में बने हुए रौशनदान पर पड़ी, जिससे सुबह की सफेदी मेरी कोठरी में आरही थी। मैं उठकर अपने खुदा की याद में मशगूल हुआ 1 कुछ देर बाद जब मैंने खुदा की इबादत से फुर्सत पाई और उजाला भी कुछ ज़ियादह हुआ तो मैं उस कोठरी को देख एक दम से ताज्जुब के दर्या में इब, गया । ...' अल्लाह ! यह, क्ह कोठरी नथी, जिसमें उस तालाब से निकाल कर वह नकाबपोश औरत मुझे लेआई थी और बड़ी मुहब्बत के साथ भेरी खिदमत करती थो, बल्कि यह दुसरीही कोठरी थी, जो एक अज़ीज़ कैफियत की थीं सह इस बारह मुखश्च के कुछ लंबी, उतनी ही चौड़ी और आठ हाथ ऊची थी, और जमीन से पोच हाध की उचाई पर एक तरफ़ तीन रौशनदान बने थे, जिनमें से होकर रौशकी । और हवा आती थी ! वह पक्की गच की हुई थो और उसके चारों । तरफ़ की दीवारों पर तरह तरह की तस्वीरें लिखी हुई थीं। कोठरी के बीचोंबीच भेरा पलंग बिछा हुआ था, जिसपर उम्दः बिछावन बिछा था। इसके अलावे उस कोठरी में एक और भी अजीब चीज़ थी, वह यह कि उस कोठरी के हर चहार तरफ जमीन मैं, दीवार से सटकर, चार कदम हबशी खड़े थे, जिनके हाथों की नंगी तल्लारे ज़मीन की ओर झुकी हुई थीं। | | .... लिखने में तो देर भी हुई, लेकिन बात की बात में पलंग पर बैठे। ही बैठे मैने ये सारी कैफियतें देख लीं, जिनके देखने से दहशत, ताज्जुब, और दिलचस्रो, ये तीनों बातें एक साथ मेरे दिल में कवडी मारने लगीं। मैने दिल ही दिल में कहा कि,"अययूसुफ ! दिलाराम के फिराक में तू कहां ३ मा २ फिर रहा है और तेरी बदकिस्मती तुझे कैसे कैसे कुऐ झंका रही है। अभी तो इतना ही है, लेकिन देखना, आगे और क्या क्या तमाशे दिखाई देते हैं। इन्हीं बातों पर गौर करते करते में अच्छी तरह उन बशियों