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शाहीमहलसरा

वह बोली,--"हाँ, ठीक है। खैर, सुनो;अब मैं उन पाँच अंगरेज़ों का कुछ थोड़ासा हाल तुम्हें सुनाती हैं, जो कि उस रोज़ बार में मदद थे। बादशाह के सामने, यानी मेज के दूसरे सिरे पर, दाहिनी और जो साहब बैठे थे, वे बादशाह के मास्टर हैं। उन्हें पचीस हज़ार साखाना मुशाहरा दिया जाता है, लेकिन बादशाह शायद ही कभी उनसे कुछ अंगरेज़ी पढ़ते हो।"

मैने कहा,--"क्या वेही मास्टर हैं, जिनकी नाक पर बाई ओर झुकता हुआ एक मस्सा है ?"

वह बोली,--हाँ वेही मास्टर हैं। उनके बगल में जो बंदरमुहा साहब बैठा था, वह शाही कुतुबुखाने का दारो यानी अफ़सर है। उसकी बग़ल में तीसरा अंग्रेज जो था वह ऊनी का रहने वाला एक मुसञ्चिर और गवैया है। लेकिन यूसुफ ! तुमसे बिहतर सुरञ्बिर वह हर्गिज़ नहीं है और गवैया तो ऐसा है कि अगर उसका गाना बुनुले तो सिर पर चढ़ा हुआ भूत भाग जाय "

मैं अपनी मुरव्वरी की तारीफ उस परीपैंकर से सुन कर दिलही दिल में निहायत खुश हुआ और बोला,--खैर, अब उन चौथे और पाँच साहब की सिफत भी बयान करो ।

वह कहने लगीं,--चौथा बादशाह के बौडीगाडो का अफ़सर और पाँचवां केजी अखिों वाला एक हुल है!

मैने कहा,--हां, उस हज्जाम के बहुतेरी सिफतें मैं सुन चुका हूँ । वह पहिले हजाम का पेशा करता था, फिर एक जहाज़ का खलासी हुआ। उसके बाद वह सौदागर बनकर लखनऊ आया और अपनी खुशकिस्मत के वाइस बादशाह की नाक के खाल वन वैा ।

वह बोली,-- ख़ुदा की अजब शान है कि जो एक दिन जहाज़ के खलासी था, उसके आगे आज दिन अवध के बड़े २ सदरों के सिर झुकते हैं। सच पूछो तो वादशाही का मज़ा वह कदत हजम हो क्रूरता और बादशाह को भी वह इस क़दर छूटता है कि अगर उनै एक