पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/१००

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  • लखनऊ की कन* अल्लाह, इस जिन्दगीसे तो मौत फरोड दरजे बढकर आराम देने वाली है ! वे लोग बहुत ही खुश-किस्मत हैं,जो बड़े आरामके साथ मिट्टी के अन्दर टांग फैलाये हुए लोरहे हैं । आह, अब मैं क्या कर और क्यों कर अपने तई इस बला से छुडाऊ।

नाज़रीन, मैं तमाम दिन इसी उधेड़बुन में लगारहा और दिलही दिल में इस बातपर ज़ोर करता रहा कि गोल इमारत में चहारदरवेश नामो किताब के अन्दरले जिम मज़मून का एक ख़त मैंने पाया था, मालूम देता है कि मेरी जान भी अब उसी सङ्गदिली से लीजायगी और वगैर आबोदाने के तड़प तड़पकर मरने के बाद मेरी लाश उसी गौल इमारत के कूप में, या उस तालाब में; जिसमें कि एक रोज मैं डुशाया गया था, डालदी जायगी !!! माह, इस खयाल के दिल में पैदा होते ही मेरी रूह कांप उटी और सामने खड़ो २ मुसकुराती हुई अजाल मेरा मुह चिढाने लगी। अभीकुछ देर पहिले मैं खुदासे मौत मांगरहा था, लेकिन जब वाकई मौतका ध्यान हो आया तो मेरी रूह कांप उठी और मैं निहायत प्राज़िजी के साथ अपनी मदद के लिये खुदा को पुकारने लगा। देखते देखते शामभी हुई, लेकिन अबतक मैं बगैर आवोदाने के सो रहा और मुझे एक शायर की गज़ल का वह मिसरा याद आया कि- “इस कफ़स के कैदियों को आबोदाना है मना!!! योही जब तड़पते तड़पते आधी रात भी ढल चली तो मैं अपनी अज़ल को गले से लगाने के लिये तैयार हुआ और पलंग पर आकर पड़ रहा !!!