सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

लखनऊ की कब खत लिखना चाहा, जिस ले इस मुकाम पर मेरी मुलाकात हुई थी लेकिन ज्योंही मैंने अपनी अंगुली दाबात में डुबोई, एक कहकहे की आवाज मेरे कानों में पहुंची, जिलके सुनते ही मैंने जल्दी से अंगुली हटाली और उठकर इधर उधर देखनेलगा, लेकिन इस बात का पता मझ न लगा कि यह आवाज कहांले आई ! इतना तो मैं जरूर समझ गया कि यह कहकहे की आवाज किन्नी नाजनी के सुरीले गल से निकली है, लेकिन किस जानिब से वह आई, बहुत कुछ तलाश करने पर भी इसका पता न पा सका। आखिर, झझला कर, मैंने उसीदाबात को जमीन में पदक दिया हम्माम से मैं अपनी कोटरी में वापस आया! वहां आकर देखता हूं ते गरमागरम लजीज़ खाना तयार है। - भूख शिद्दत से लगीहुई थी इसलिये मैंने खाने की मेज के करीब कुर्सी पर बैठकर थालका ढकना खोला तो दिलको फरहत देनेवाली खुशव लारी कोठरो में फैल गई और मुदमें पानी भर आया । मैंने घोही पुलाव की तश्तरी उठाई, उसके नीचे मोड़े हुए एक परचे पर मेरी नज़र पड़ी । चट मैंने उसे उठा लिया और उसे खोलकर देखाता उसमें बड़े बड़े हरूफों में सिर्फ इतनी लिखा हुआ था, आदाब अर्ज हैं!!!" . मैं इस मसखरे पन को देख कर खिलखिला पडा और साथ ही एक कहकहे की आवाज ममें सुनाई दी । में फ़ौरन कुर्सीसे उठखडा हुआ और चारोंतरफ नजर दौड़ाने लगा.लेकिन किधरसे वहआवाज आई थी, यह मैं न जान सका। लाचार, मैंने भी एक आवाज दी और जोर से पुकार कर कहा कि,-- " इस गमजदे को, जान ! सताना नहीं अच्छा" लकिन इस जुमले का मुझ कोई जबाव न मिला और मैंने भी फिर नाहक पकजाया करना मुनासिब नलमझा औरकीपर बैठकर