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पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/२१

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  • शाहीमहलसरा*

खयालों में, जिनका बथान मैं नहीं कर सकता, उलझा रहा। फिर मैने सोचा कि मेरी दोस्त नाजनी बड़ी समझदार है इस बास्ते खाना न खाने या उसके फेंक देने के सच को बह खद समझ जायगी, लेकिन फिरसी मैंने उस पर अपने दिल का हाल जाहिर कर देना सुनासिब समझा। चुनांचे मैंने किनाव में से एक टुकड़ा सादा कागज़. फाड़कर पान की पीक से उस पर सिर्फ इतना ही लिस्लाकि, “अजीब दोस्त ! अब मैंने यह पचा इरादा कर लिया है कि अब सफ आपका दीदार नलीवन होगा, मैं आपके आबोदाने से किसी किस्म का सरोकार न रक्खूगा।” बस, फकत इतनाहो लिखकर मैंने उस परचे की भी वहीं पर फेंक दिया, जहां पर खाना पड़ा हुआ था; और सोचने लगा कि देखू अब इसका क्या नतीजा निकलता है ! फिर मैं किताब देखने लगा, लेकिन दिल सो ठिकाने थाही नहीं, इसलिये उसे मैंने रख दिया और करवटें बदलना शुरू की। देरतक मैं इसी तरह अपने दिल के फफोले फोड़ा किया । यकवयक मैं चौंक उठा,क्योंकि मैंने देखा कि मेरी चारपाईके पास एक स्याहरू वाशिम खड़ी है !!! चार नज़र होतेही उसने झुककर सलाम किया और मुस्कुराफर कहा,-" आदावअर्ज है ! मैं हैरत में आकर चारपाई पर उठकर बैठ गया और उसके आदाब अलकाब' का कोई जबाब न देकर एक टक उसके चहरे की तरफ़ देखने लगा। घह चुडैल इतनी काली थी कि अगर उसे हिन्दुओं की काली या कोई भूतनी कहूं तो बेजान होगा । अल्लाह ! इतनी स्याहरू औरत इसके पेश्तर मैंने कभी धाव में भी नहीं देखी थी ! गरज़ यह कि मुझे देर तक अपनी तरफ़ घूरते देखकर वह स्थाहरू परी जयसा हंस पड़ी और बोली, “जनावमाली ! आदाब