सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

खनऊ को कद्र* मैंने फिर उसके आदाब का कोई जवाब न दिया और कहा,-- उसने कहा,--" आपकी मददगार दोस्त ।" मैं,-"अल्लाह, तू और मेरी मददगार दोस्त !" वह-(हंसकर ) “ममाज़' अलाह ! मेरी सूरत का कोई भी ख्वाहां नहीं ! __मैं,-" खैर, यह माज़ तो तू अपने किसी हबशी आशिक को दिखलाइयो। मुझे सिर्फ इतनाही बतला कि तू कौन है ? " वह,- ( मुस्कुराकर ) " यह तो मैं पेश्तर हो बतला चुकी" -" च्या बतलाया?" वह, अब तो मुझे वह बात याद न रही। " मैं,-" आइ ! सितम न ढाह और बतला कि तू कौन है ? वर,-" मैं आसमानी की रूह हूं।" यह सुनकर मैं चीखमार उठा और गुस्से से बोला,-" आह ! . आसमानी कंबख्त हर जगह मौजूद रहनी है ! " वह, क्या करे, आपपर वह फ़िदा जो है।" मैं,-"चल, हट दूर हो, नखरा नकर और बता कि तु कौन है?" वह,- आपकी आशिक ! " मैं-- लाहौल बलाकूषत ! तू मेरी आशिक ! तौचः! तौबास, जा, चलीजा यहांसे!" वह,-- कहां जाऊँ ? " मैं,-- जहांसे आई हो!" वह,--- में बिहिश से आई हूं।" मैं,--" तो अब दोजख में जा।" घह,-" और दिलाराम ? " मैं, आई, उसका नाम त कों लेती है ? " बह--".इसलिये कि वह मेरी सौत है ! "