पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/४९

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  • शाहीमहलसरा जिल शस्त को, यानी खुलासा यह कि, जिस नज़ीर को तुमने मारा है, वह इस औरत का कितना प्यारा होगा!" मैंने कहा,--बहुतही प्यारा!"

उसने कहा,-"मला, फिर तुम्हीं इस बात का इन्साफ़ करो कि अगर तुम्हारी दिलाराम को कोई शख्स मारहाले तो क्या तुम उस खनी के मार डालने का कस्द न करोगे?" मैंने कहा,--आह, दिनाराम को तुम भी जानती हो ? उसने कहा,--हां ज़रूर जानती हूं, लेकिन पेश्तर मेरी बात का तो जवाब दे!" मैंने कहा,--"हां, यह बात सही है कि मैं दिलाराम के खनी को बगैर खून पीए न रहता ।" वह बेली,-पस, अब तुम्हीं इसका इन्साफ़ करो कि फिर नज़ीर के खनी के साथ वह नाज़नी कैसा सलूक कर सकती है जिसने कि उस (नकार) की जान ली हो ? मैंने कहा, "बेशक वह नज़ीर के खनी के साथ बैसाही बर्ताव कर सकती है, जैसा कि उसके खूनी ने नजीर के साथ किया हो। यह सुनकर वह नकाबपोश औरत निहायत खश हुई और बाद इसके उसने कहा,लेकिन फिरभी जब उसने तुम्हारी सूरत देखी, तुम्हारे कसूरों को एक दम मुआँफ कर दिया और तुम्हें अपने गले का हार बनाना चाह। । इतने परमी अगर तुम इस कदरदां नाज़नी की मुहब्बत की कदर न करी और इसके एवज में उलटी गालियां दे तो भला यह कैसी इन्सानियत है ? मैंने कहा,-लेफिन, मैंने इस महलसरा के अन्दर बड़ी बड़ी ___ तकलीफें उराई, जो काबिल इजहार नहीं। वह वोलो,- आखिर, इसमें जनाब ! कुसूर फिसफाई ?" ___ यह बात सुनकर मैं चुप होगया, क्योंकि इसका जो कुछ जनाव होसकता है, वह मैं जानता था! पल, मुझे चुप देखकर वह औरत