पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

४८ • लखनऊ की कत्र जरासा हंस पड़ी और बोली,-"हाँ, हां, को, चुप क्यों होगए ?" लाचार, मैंने कहा,--मई, इसमें कुसूर तो मेरा ही है।" यह सुनकर उसने एक कहकहा लगाया और कहा,-"अलहम्द. लिल्लाह ! अनीमत है कि तुमने सञ्चो मुनिलफ़ो को । क्यों साहब ! जिसके आशिक का आप खून करें, वह अगर अपने आशिक के खन के बदले को न लेकर आप पर अपनी जान निछावर कर दे तो उसका एवज आप गालियोंसे अदाकरें! क्या यही इन्सानियतके मानीहैं?" नाज़रीन ! बाकई, यह एक ऐसी यहसाथी, कि जिसे सुनकरमैं बिल्कुल कायल होगया और कुछ भी जवाव न देसका। मुझे देरतक च देखकर उसने एक कहकहा लगाया और कहा,-क्यों हज़रत ! कुछ कहिए भी,जवाब तो दीजिए ! " मैंने कहा, ---" साहब, आप जरा अपनी सूरत ले दिखलाइए तब मैं आपको बातों का जमाव दूगा।" उसने कहा--"खैर; सूरत भी देख लीजिएगा; लेकिन पेसर पह तो बतलाइए कि अब आपका इरादा क्या है ?" __ मैंने कहा;--"इरादा तो मेरा अब यही है कि एक मर्तबः नज़ोर की आशना की सूरत देखू ।" धह.-* बाद इसके ?" मैं;-- बाद इसके उसके कदमों पर गिर कर अपने कुसूरों की मुआफो चाहूं औरजो कुछ वह हुक्म दे उसे बसरोश्म बजा लाऊं।" वह;-"क्या; यह आप सच कह रहे हैं ? मैंने कहा-'हां इसमें कुछभी दरोग नहीं है, इसके बाद वई नकोरपोश औरत उठी और उठकर उसने मामबत्ती जलाई फिर वत्ती हाथ में लेकर जब उसने अपने चेहरे से नका ब हटाई तो मैं क्या देखता हूं कि मेरी प्यारी दिलराम मेरे रूबरू बही २ मेरी मोर देखकर मुस्कुरा रही है। !!