सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

  • लखनक

का ग्यारहवां परिच्छेद। परीजमाल के जाने के बाद मैं अपनी किस्मत को कोसता हुआ मसनद पर आ बैठा और शमादानके उजाले में उसी किताबको फिर खोलकर पढ़ने लगो- लेकिन इस वक्त दिल न लगा और लाचार हो मैंने किताब हाथले धर दी। देर तक मैं अपनी निराली उधेड़ बुन में लगा रहा और फिर प्रसनद पर ही लेट रहा। शायद मैं कुछ देरतक सोता रहा, इतने ही में मेरे तलवे में किसी ने गुदगुदाया। मैं चट पैर बैंच कर उठ बैठा और देखा कि सामने वही खूब सूरत लौंडी बैठी हुई है !!! उसने अपनी कातिल आंखों से मुझे वेतरह घायल करके कहा,"तुम तो दोस्त ! खूब सोना जानते हो ! " __ मैंने कहा-"आखिर क्कैद और तनहाई की हालत में सिवा सोने के और आराम क्या दे सकता है ? उसने कहा,-"लेकन; मैंने तुम्हारी नोंद में खलल पहुंचाकर अच्छा न किया। मैंने कहा;--"नहीं; मैं तो तुम्हारों. राहही तकता था! यह बहुत अच्छा हुआ कि तुम आगई ! " ___ उसने कहा -“लेकिन तुम्हें पेश्तर इस बात की शिनाख कर लेनी थी कि मैं असली हूं वा नकली !!! .. ___मैंने कहा-"आह, शिनाख! हां, ठीक है ! मुझे तो इस बात की याद भी न रही, लेकिन इसमें मेरो क्या कुसर है ! वह जुमलातो तुम्ही को कहना चाहता था। उसने कहा, "लेकिन अगर मैंने उस जुमले के कहने में गलती को थी तो तुम्हें मुनासिब थाकि जब तक में वह जुमला न कहलेती, तुम मुझ से हर्गिज बात न करते ! मैंने कहा- हां यह मेरी गलती ज़कर है।