पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/९८

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  • लखनऊ की कब

बारहवां परिच्छेद। देरतक मैं कमरे में टहलता और तरह तरह के ख़यालों में गाते खाता रहा, लेकिन उल्ल कमरे में वेगम या उसकी लौंडी, इन दोनों में से एक भी न आई । यही जब एक घटे से ज़ियादह वक्त गुज़र गयो ते। मैं बहुत ही घबराया और मैंने चाहा कि फिर जाकर उस घर की सूई हिला दं, लेकिन ऐसा मैं न कर सका; क्योंकि जिस आलमारी से वह घड़ी थी, वह (मालमारी ) न जाने क्यों कर हज़ार कोशिश करने पर भी मुझसे न खुल सकी। तब मैंने दिलही दिल में यह तसौवर किया कि सुई घुमाने को अदद उल परीज़माल को जरूर जी है और तब उसने किसी हिकमत से इस आलमारी को भीतर से बंद कर दिया है! यह जाम कर मैं दिलही दिल में निहायत शर्मिन्द हुt और अफ़लोस करने लगा कि नाहक मैंने ऐसी वेब- कूफ़ी क्यों की और उसके बगैर हुका, मना करने पर भी सुई क्यों धुमाई ! लेकिन अब तो जो तीर अपने हाथ से निकल गया था,उसके धास्ते अफ़सोस करना लावासिल समझ कर मैं मसनद पर बैठकर किताब देखने लगा, मगर दिल न लगा और कुछ देरतक इधर उधर के पन्ने उलट पुलट कर मैंने किताब घरदी! में यही समझे हुए था कि ठीक वक्त पर जब खाना लेकर वह लौंडी आएगी तो उसी से इस सुई के घमाने के बारे में कुछ पूछताछ करूंगा और अगर वह मुझे लेकर आजही यहां से भागना चाहेगी तो अब बगेर कुछ आगा पीछा सोचे उत्त के हमराह होगा। लेकिन अफसोस! मेरे अंदाज़ से, क्योंकि घड़ी वहांपर नी, रात आधीले ऊपर पहुंची,मगर वह परीजमाल या उसकी लौडी खाना लेकर न आई। लेकिन मुझे इस बातकी पूरी उम्मीद थी कि उदूल हुकमी करने, यानी मना करने पर भी सुई घुमाने से नाराज़ होकर अगर वह परीजमाळ शायद न आएगी तो उसकी लौंडी ते ज़रूरही आएगी!