पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१००

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चतुरसेन की कहानियाँ 'उदार, दाता, दयालु पुरुष पाया हो। मैं कृतार्थ हो गई, मैं धन्य हुई, मुझे अब कुछ न चाहिए था। मेरे पास रूर था, यौवन था, शरीर था, मन था, प्रात्मा थी, प्रेम था, हृदय था- सभी मैंने उन्हें दे दिया, और उन्होंने जो देना चाहा, रुपया- पैसा, वस्त्र, रत्न-सभी मैंने तुच्छ समझा। मैंने एक बार तो निर्लज्ज होकर कह दिया था--"यह सब क्यों करते हो, तुम्ही जब मुझे प्राप्त हो, फिर और कुछ मुझे क्या चाहिए।” वे हँसते थे। मेरे वे दिन हत्रा की तरह उड़ गए, मुझ मूर्ख ने यह समझा ही नहीं कि यह सब कुछ मेरे लिए नहीं, मेरे रूप के लिए है। और मैं स्त्री नहीं, वेश्या हूँ ? इस वेश्यापन और रूप ही ने तो मुझे चौपट किया !! यह विधाता की भूल है कि वह वेश्या है, अगर महारानी रूप और गुण में इससे शतांश भी होती, तो कदाचित जगत की जूठी पत्तल चाटने की जिल्लत में न पड़ता। लाखों मनुष्यों के सामने में राजा और महाराज हूँ, पर इस औरत के सामने आज एक कुत्ता, जो अपनी नीच स्वाद-वृत्तियों की तृप्ति के लिए सदा उन्मत्त रहता हो । वह जिस दिन आई तभी से मैंने उसे समझा । एक अफसोस तो यह है कि वह वेश्या है, दूसरा अफ- सोस यह कि वह यह बात अभी तक नहीं जानती। नारी- हृदय का नैसर्गिक प्रेम उसके पास अछूता था, वह उसने राई- रत्ती मुझे दिया; पर इससे फायदा? वह मुझे वही समझती है, जो लाखों-करोड़ों स्त्रियाँ पुरुष प्राप्त करके समझती रही