पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१०१

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पनिता हैं, पर मै तो यह जानता हूँ कि वह वेश्या है। उसकी माँ ने मासिक वेतन लेकर उस काल के लिए उसके शरीर पर मुझे अधिकार करने दिया है, जब तक मैं बेतन देता रहूँ! वह आत्मदान कर चुकी, यह तो सत्य है, पर इससे होता क्या है ? इस अधिकार और पद्धति-शून्य असामाजिक श्रात्मदान को मैं क्या करूँ ? क्या मैं खुल्लमखुल्ला उसे पत्नी कहने का साहस करूँ ? सारे अखबार हाय-तोबा मचाकर धरती-पास- मान उठा लेंगे? सरकार की आँखें नीली-पीली अलग हो जावेगी? और सरदार, अफसर, परिजन दम निकाल देगे। वह रानी बनने योग्य है; उसके रानी बनने से उसकी नहीं, महल की शोभा है। परन्तु इस बात को तो देखिए कि यह व्यभिचार और रूप का क्रय-विक्रय तो सब अन्धे और बहरों की तरह देख सुन रहे हैं, पर इस पाप को नीति और नियम के रूप में संसार नहीं देखना चाहता। फिर मैं क्यों इल्लत लूँ ? मैं राजा हूँ, युवा हूँ, सुन्दर हूँ, धनी हूँ, मैं ऐसे-ऐसे सौन्दर्य नित्य खरीदने में समर्थ हूँ। मैं अपना यह स्वार्थ-अधिकार क्यों त्यागें ? कठोरता हाँ, यह कठोरता और निष्ठुरता तो है, परन्तु राजा बनकर मनुष्य को कितना कठोर बनना पड़ता है। राज्य- व्यवस्था कायम करने के लिए कठोरता गुण है, यदि मैं आत्म- सुख और शरीर भोग के लिए भी जरा निष्ठुर बनूं तो कुछ हर्ज है ? मैं उसे ठग नहीं रहा, मुआविज्ञा दे रहा हूँ, इतना और उसे मिलेगा कहाँ ? वह वेश्या है, जब तक उसमें रस है, मैं भरपूर मोल देकर लूँगा, पीऊँगा, बखेरूँगा, जब जी में आवेगा फेंक दूंगा। अजी ! यह स्त्री-जाति ही तो है ? सर्दी की धूप की तरह यह स्त्री-यौवन ढलता है। पुरुष होकर, सुयोग पाकर मैं