पृष्ठ:लालारुख़.djvu/९९

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पतिता , हाय ! क्या मैं सोई ? वह पुरुष सो गया और मैं उसके पैर पकड़े बैठी रही। रात बीतने लगी, निस्तब्धता छा गई। हॉ मैं पैर पकड़े बैठी थी, उस पुरुष के, जो इतना कठोर और इतना उदार, ऐसा मस्त और ऐसा जिद्दो ! और तस्वीर देख रही हूँ किसी और की, जिसे मैंने कुछ दिन पूर्व शरीर अर्पण किया था। मेरा हृदय और प्रेम आवारा गर्द बेघर-बार पुरुष की तरह भटक रहा था। वेश्यावृत्ति का जटिल रहस्य अब मेरी समझ में आया। कई घरटे व्यतीत हो गए। वे एकाएक उठ बैठे। उन्होंने कहा-बेवक लड़की ! क्या तू सचमुच वेश्या नहीं है ? तेरे पास हृदय है ? तू प्रेम करना जानती है ? मेरे जबाब से प्रथम ही उन्होंने मुझे उठा कर हृदय से लगा लिया। हाय ! यह पापिष्ट शरीर यहाँ भी अर्पण करना पड़ा। पर मैं लज्जा से अपने आपको भी नहीं देख सकती थी। कह ही हूँ, बिना कहे तो चलेगा नहीं; वैसा सुन्दर आदमी नहीं देखा था। रङ्ग गुलाब के समान, दाँत जैसे मोती की लड़ो, हास्य जैसे चाँदनी की बहार-मैं देखती रह गई, यही महाराज थे। उन्होंने पास बुलाया, प्यार से बगल में बैठाया, क्या-क्या किया, क्या-क्या कहा, वह सब बड़ी कठिनाई से भुलाया है, अब याद क्यों करूं? मैंने समझा था, मैं नौकर हूँ, पर मैं थी रानी! नौकर थे राजा साहब ! वे कितना प्यार करते थे, कितना लाड़ करते थे-मैं क्या होश में थी, जो समझ सकती। पुरुष स्त्री जाति को कब क्या देता है। पुरुष स्रो-जाति को किस तरह सुख देता है, यह केवल वह स्त्री ही जान सकती है, जिसने वैसा सुन्दर,