पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१०३

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पतिता सहन ही नहीं कर सकते कि कभी सामना होने पर भी अपनी घरवालियों से हमारा परिचय तक तो करा दें! अपनी रजीत हैसियत हम समझता हैं, हमारे हीरे-मोती, महल-पलँग, मसु- हरी, मोटर, धन-कोई भी हमारो इस रजील हैसियत से हमारी रक्षा नहीं कर सकता। हाय ! वेश्या के हृदय को छोड़ कर, और कौन सी हृदय इस भयानक अपमान की धधकती आग को हँस कर सह सकता है। उस दिन मेंह बरस रहा था, भयानक अँधेरा था, राज- महल स्टेशन से दूर न था, परन्तु महाराज शिकार खेलने वहाँ से १८ मील के फासले पर गए थे। उनके अगरेज दास्त आए थे, वहीं उनकी दावत और जशन का नाच-रङ्ग था। दर्जन भर वेश्याएँ उसमें बुलाई गई थी, मैं अभागिनी भी उनमें एक थी, भेरे नाच और गाने की ख्याति ने ही मुझे इस विपत्ति में डाला था, पर मैं करती भी क्या। वेश्या पर उसकी कुटनी माँ का असाध्य अधिकार होता है। मेरा शरीर अच्छा न था, दो साइयाँ बजा कर आई थी, थकी थी सर्दी-जुकाम भी था, पर मुझे आना ही पड़ा। चार सौ रुपए रोज़ की फीस छोड़ी भो कैसे जाती ? सारी नवाबी तो ससी के पीछे थी। अंधेरी रात और १० मील का सफर! १०-१२ हम बदनसीब औरतें और हमारे मिरासी नौकर । साथ के लिए ४ प्यादे सिपाही और सामान लादने की एक बेगार में पकड़ी हुई बैलगाड़ी और दो लद्दू १। बस, यह हमारे स्वागत का प्रवन्ध उप- स्थित था। क्या ये कमीने राजा अपनी रानियों के लिए भी ऐसा ही स्वागत करने की हिम्मत कर सकते हैं ? पर रानियों से हमारी निस्बत ही क्या?