पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१०४

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, चतुरसेन की कहानियाँ सिपाहियों ने कहा--"बेगार में और कुछ मिला ही नहीं, सामान गाड़ी और टट्ट पर तथा हमें पैदल चलना होगा।" मैं तो धम से बैठ गई। इस अँधेरी रात में, बरसात के समय १० मील पैदल चलने से मैंने मरना ठीक समझा। मैंने साफ इनकार कर दिया सिपाहियों ने बतियाँ उड़ाई ! अन्त को एक पहिले मुझे दे दिया गया। मैंने उसे ही गनीमत समझा। हम भाग्यहीनों की इस ठाट की सवारी चली, जिन्हें वहाँ पहुँचते ही अपनी चमक-दमक, रूप और नखरों से उन भेड़िए रईसों और उनके कमीने मेहमानों को पागल बनाना था। मैं चुपचाप टटटू पर कम्बल ओढ़े वैठी थी, कमर टूटी जाती थी, और में गिरी जाती थी। पानी का छींटा बीच-बीच में गिर जाता था, पर मैं जानती थी कि वहाँ पहुँच कर मुझे बहुत मिहनत करनी है, आराम इस नसीब में कहाँ? तीन घण्टे सफर करके हम वहाँ पहुँचे। पहुँचते ही पता लगा, महाराज और पार्टी कड़ी प्रतीक्षा कर रहे हैं, हमें तत्काल ही पेश्वाज पहन कर महफ़िल में पहुँचना चाहिए। मैंने अध- मरी सी होकर साथ को वेश्या से कहा-"अब इस समय तो मुझसे एक पग भी न उठाया जायगा ।” उसने कहा-"बेव- क्रूफ हुई है, जल्दी कर, ऐसा कहीं होता है।" उसने जल्दी- जल्दी दो तीन पैग शराब पिलाई। ओह ! मुझे सजना पड़ा, मेरा अङ्ग अङ्ग टूट रहा था, मैं मरो जाती थी, मुझे ज्वर चढ़ रहा था, पर मेरे पास मिनट- मिनट पर सन्देश आ रहे थे। हीरा प्रथम ही से महाराज के पास थी, उसने कह ला भेजा-आनन्दी जल्दी कर, सभी लोग