पृष्ठ:लालारुख़.djvu/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पतिता की पुतलियाँ इसी तरह कुचली गई। ये कमीने धनी, धन के बदले हमें प्रलोभनों में फंसाते हैं और हमारा यह लोक और परलोक नष्ट करते हैं। और खेद तो यह है कि इसका ज्ञान हमें तब होता है, जब हमारे बचने के सभी मार्ग बन्द हो जाते हैं। मैं क्या कर सकती थी, मैं उसके लिए अच्छी तरह रोकर चली आई! . & मुझे मरने में बड़ा सुख है। रेल वाली उस महिला का -- हाथ मेरे मस्तक पर है। वह मुझे मृत्यु के बाद मार्ग बताएगी। अब जितना जल्द यह घृणित शरीर छूटे, अच्छा है। मैंने वे पलँग, साड़ी, शाल, आभूषण-सब त्याग दिए। मैं महादरिद्र की तरह मर रही हूँ, पर मुझे गर्व है कि इस शरीर को छोड़ अब कोई अपवित्र वस्तु मेरे पास नहीं। और जिस स्वेच्छा से । मैंने वे सब सामान त्यागे हैं, उसी तरह मैं इस शरीर को त्यागने को उत्सुक हूँ। इसमें मुझे जरा भी दुःख नहीं, पर खेद तो यह है कि अब स्नेहशीला हीरा के दर्शन न होंगे। ऐसी प्रेम और त्याग की अप्रतिम मूर्ति, सौन्दर्य की राशि पृथ्वी में कितनी उत्पन्न होती हैं ? सुना है कि वह पागल हो गई है और उस दिन आत्म-धात की इच्छा से छत से कूद पड़ी थी। आखिर कहाँ तक सहन करती ? जिसे उसने तन, मन, शरीर दिया, उसी ने उसे यहाँ तक गिराया। मैं मरती हूँ, पर पुरुष-जाति

  • पर श्राप देती हूँ कि इस पुरुष-जाति का नाश हो, इसका वंश

नष्ट हो, इसकी मिट्टी ख्वार हो, जो असहाय अबलात्रों की 7 V