पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१३

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लाला रुख "बादी “जो हुक्म" कहकर चली गई। और कुछ क्षण बाद ही मूर्तिमती कविता और संगीत की मधुर धार उस भावुक शाहजादी के मानस सरोवर में हिलोरें लेने लगी। वह सोचने लगी, जिसका कंठ स्वर इतना सुंदर है, और जिसका भाव इतना मधुर है, वह कितना सुंदर होगा। शाइ- जादी की इच्छा उसे एक बार आँख भरकर देख लेने की हुई। शाहजादे ने कहला भेजा था कि उससे पर्दा न किया जाय । परन्तु शाहजादी इतनी हिम्मत न कर सकी। उसने प्रधान दासी के द्वारा कवि से कहला भेजा कि वह नित्य इसी भाँति शाह- जादी के लिए गाया करे, तो शाहजादी उसका एहसान मानेगी। उस दिन से दिन भर शाहजादी उस अमूर्त संगीत के रूप की कल्पना विविध भॉति करने लगी, और जब वह स्वर्ण क्षणा आता, तो उस स्वर सुधा में मस्त हो जाती। कश्मीर धीरे धीरे निकट आ रहा था। शाहजादे से मिलने का दिन निकट आ रहा था। तमाम कश्मीर में शाहजादी के स्वागत की बड़ी भारी तैयारियाँ हो रही हैं, इसकी खबर रोज शाहजादी को लग रही थी, पर शाहजादी का दिल धड़क रहा था। क्या सचमुच यह अमूर्त संमीत एक दिन विलीन हो जायगा। धीरे धीरे शाहजादा के मन में साक्षान् करने की इच्छा बलवती होने लगी। शालामार की सुन्दर और स्वर्गीय छटा अवलोकन करती हुई लालारुख अनमनी सी बैठी थी। अब वह उस अमूर्त के दर्शन से नेत्रों को धन्य किया चाहती थी। उसने उस स्निग्ध चांदनी के एकान्त में उस कवि को बुला भेजा था। हाथ में वीणा लिए जब उसने घुटने टेककर शाहजादी को अभिवादन किया, तब 19