पृष्ठ:लालारुख़.djvu/१४

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चतुरसेन की कहानियाँ क्षण भर के लिए शाहजादो स्तंभित रह गई। उसके होठ कांपकर रह गए, बोल न सकी कवि ने कहा "हुजूर, शाहजादी ने गुलाम को रूबरू हाजिर होने का हुक्म देकर उसे निहाल कर दिया।" "मैं, मैं तुम्हें बिना देखे न रह सकी।" "शाहजादी का क्या हुक्म है।" "एक बार इस चांदनी में मेरे सामने बैठकर वही प्यारा संगीत गा दो" "जो हुक्म । कवि की उँगलियों ने तारों में कंपन उत्पन्न किया, साथ ही कठ का मधु प्रवाहित हुआ, शाहजादी उसमें खो गई। गाना खत्म कर, कवि ने साहस करके मुग्धा राजकुमारी का कोमल कर अपने होठों से लगा लिया। शाहजादी चीख उठी, उसने अपना हाथ खींच लिया, पर दूसरे ही क्षण उसने कहा "ओह" इब्रा- हीम, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती । "और, वह मूच्छित होकर कवि पर झुक गई। शालामार बाग में शाहजादी ने कुछ दिन मुकाम करने की इच्छा प्रकट की। कश्मीर से शाहजादे के तकाजे आ रहे थे कि जल्द सवारी आवे, पर शाहजादी शाहजादे के पास जाते घबराती थी, वह अपना हृदय कवि को दे चुकी थी। वैसी ही चांदनी थी, संगमरमर की एक पटिया पर दोनों प्रेमी बैठे थे। फूलों का ढेर और शीराजी सामने रक्खी थी। शाहजादी ने कहा "प्यारे इब्राहीम, इस क़दर मुतफिक्र क्यों हो।"