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पृष्ठ:लालारुख़.djvu/२०

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बावर्चिन एक बरगल साम्राज्य का प्रताप सूर्य मध्याकाश में तपकर अपने काल में विश्वभर में अप्रतिम तेज विस्तार कर गया था। मुग़ल दार का मधाब, दब दया, और शान शौस्त कमी अवर्ण्य थी, परन्तु जब उसके अल होने का समय श्राया नो उम्मकी दशा ऐसी दयनीय हो गई जिसकी कला कहानी सुत्रों के समुद्र में डूत्र गई । इस कहानी में अन्तिम मुग़ल खम्राट बहादुरशाह के पतन काल का और मुग़ल वेगमात के आँसुत्रों का जो कभी भवन द्वारे मोदी इत्र और ऐश्वर्य ही को जानती थी ऐसा सम्बोट रेखा चित्र है, जो हृदय में बाब कर जाता है । साम्राज्यों के पतन में विश्वास- धानियों का सदा हाथ रहा है इस में भी एक ऐसे ही विश्वास बाती का मंन किया गया है जिम के बड़े-बड़े वर्णन मुग़लतख्त के पतन काल में इतिहास में पाए गए हैं। १ सन् १८४५ की २८वों मई के तीसरे पहर एक पालकी चाँदनी चौक में होकर लाल किले की ओर जा रही थी। पालकी बहुमूल्य कमख्वाब और जरी के पदों से ढंकी हुई थी। पाठ कहार उसे कन्धों पर उठाए थे और १६ तातारी बाँदियाँ नङ्गी तलवार लिए उसके गिर्द चल रही थीं। उनके पीछे ४० सवारों का एक दस्ता था, जिसका अफसर एक कुम्मेत अरबी घोड़े पर चढ़ा हुआ था। उसकी जरबफ़्त की बहुमूल्य पोशाक पर कमर