पृष्ठ:लालारुख़.djvu/२१

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बावर्चिन में नाजुक तलवार लटक रही थी, जिसकी मूंछ पर गङ्गाजमुनी काम हो रहा था। उसकी काली धनी डाड़ी के बीच, अङ्गारे की तरह दहकते चेहरे में मशाल की तरह जलती हुई आँखें चमक रही थीं, जिन्हें वह चारों तरफ धुमाताहुआ, अकड़ कर, किन्तु खूब सावधानी से पालकी के पीछे-पीछे जा रहा था। भयानक गर्मी से दिल्ली तप रही थी। तब चाँदनी चौक की सड़कें आज की जैसी तारकोल बिछी हुई आईने की तरह चम- चमाती न थीं, न मोटरों की घोंघों-पोपों और सर्राटेवन्द दौड़ थी। चाँदनी चौक की सड़कों पर काफी गर्द-गुब्बार रहता था। हाथी, घोड़े, पालकी और नागौरी बैलों की जोड़ी से ठुमकती हुई बहलियाँ एक अजब बाँकी अदा से उछला करती थी। अब जिस स्थान पर घण्टाघर है, वहाँ तब एक बड़ा सा हौज्ञ था, जो चाँदनी चौक की नहर से मिल गया था, और जहाँ कम्पनी बारा और कमेटी की लाल सङ्गीन इमारत खड़ी है, वहाँ एक बड़ी भारी किन्तु खस्ताहाल सराय थी, जिसकी बुर्जियाँ टूट गई थीं और जहाँ अनगिनती खञ्चर, ट्व, बैल- गाड़ियाँ, घोड़े और परदेशी बेतरतीबी से पेड़ों के नीचे या बेमरम्मत कोठरियों में भरे हुए थे। जिस समय पालकी वहाँ से गुजर रही थी, उस समय हौज पर खासा धोबो-घाट लगा हुआ था। कोई नहा रहा था, कोई साबुन से कपड़े धो रहा था। सराय के टूटे किन्तु सङ्गीन फाटक पर देशी-विदेशी आदमियों का जमघट लगा था! पालकी अवश्य ही कहीं दूर से आ रही थी। कहार लोग पसीने से लथपथ हो रहे थे, धनका दम फूल रहा था और वे लड़खड़ा रहे थे। पीछे से अकसर तेज चलने की ताकीद कर