पृष्ठ:लालारुख़.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुरसेन का कहानियाँ इलाहीबख्श भी उनमें से एक थे। १० वर्ष पहले शाहजादी के कदमों पर गिर कर नमकहलाली की जो बात उन्होंने कही थी, वह अब उन्होंने ढरगुज़र कर दी थी। वे अब अगरेजों के भदिए थे। दोनों व्यक्ति सराय के सामने जाकर ठहर गए। होज के पास, जहाँ अब घण्टाघर है, वराबर-बरावर फाँलियाँ गड़ी थी और क्षण-क्षण में चारों तरफ गली-कूचों से आदमी पकड़े जाकर फांसी पर चढ़ाए जा रहे थे। कुछ खास कैदी इनकी प्रतीक्षा में बँधे बैठे थे। हडसन साहब ने सबको खड़ा होने का हुक्म दिया । इलाहीनख्श ने उनमें से मुग़ल-सरदारों और राज- परिवार वालों की सनारन की; वे सब फाँसी पर लटका दिए गए। इसके बाद, वादशाह किले से भाग गए हैं---यह सुन कर एक कोज की टुकड़ी लेकर दोनों तीर को तरह रवाना हुए। ५ बादशाह सलामत जल्दी-जल्दी नमाज़ पढ़ रहे थे। उनके हाथ काँप रहे थे और आँखों से आँसुओं की धार बह रही थी। शाहजादी गुलबानू ने आकर कहा-बाबाजान ! यह आप क्या कर रहे हैं ? "वेटी अब और कर ही क्या सकता हूँ ? खुदा से माँगता ई. कहता हूँ--ऐ दुनिया के मालिक ! मेरी मुश्किल आसान कर; यह तख्त, तैमूर के खून का तख्त तो आज गया ही, मेरे बच्चों की जान और आबरू पर रहम बख्श!" गुलबान ने कहा-बाबा! दुश्मन किले तक पहुँच चुके हैं। आपके लिए सवारी तैयार है, भागिए!