पृष्ठ:लालारुख़.djvu/२९

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यावर्वाचन दादशाह ने अन्धे की तरह शाहजादी का हाथ पकड़ कर कहा-भाग कहाँ ? हाय ! वह बड़ी अब आ ही गई ? इसके बाद उन्होंने अपनी जड़ाऊ सन्दकची मंगाई, और परिवार के सब लोगों को बुला कर एक-एक मुट्ठी हीरे सबको देवर कहा-खुदा हाफिज! किन्ते से निकल कर बादशाह मोघे निजामुद्दीन गए ! इस वक्त उनके मुख मण्डल की प्रामा उत्तरी हुई थी। कुछ खास- स्वास ख्वाजासरा, बहार और इने-गिने शुभचिन्तकों के सिवा कोई माथ न था। चिन्ता और भय से वे रह-रह कर काँप रहे थे। उनकी सफेद दाढ़ी धूल से भर रही थी ! बादशाइ चुपचाप जाकर मीढ़ियों पर बैठ गर । गुलामहुपेन चिश्ती सुन कर दौड़े आए। बादशाह उन्हें देखते ही खिलखिला कर हँस पड़े। चिश्ती साहब ने पूछा- खैर तो है ? "रजैर ही है, मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था कि ये बद- नसीब ग़दर वाले मनमानी करने वाले हैं। इन पर यकीन करना बेवकूफी है; ये खुद डूबगे और हमें भी डुवावेंगे। वही हुआ, भाग निकले। मुझे तो होनहार दिखाई दे गई थी कि मै मुग़लों का आखिरी चिराग़ हूँ। मुग़लों के तहत का आखिरी साँस टूट रहा है, कोई बड़ी-भर का मिहमान है। फिर खून- खरावी क्यों करूं ? इसीलिए किला छोड़ कर चला आया । मुल्क खुदा का है, जिसे चाहे दे, जिसे चाहे ले । सैकड़ों साल तक हमारे नाम का सिक्का चला। अब हवा का रुख कुछ और ही है । वे हुकूमत करेगे, ताज पहनेंगे। इसमें अफसोस क्यों ? हमने भी तो दूसरों को मिटा कर अपना घर बसाया था! हाँ, ---