पृष्ठ:लालारुख़.djvu/४१

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सोया हुश्रा शहर 1 और गहरी काली आँखों से बुद्धिमता तथा गम्भीरता टपक रही थी। दूसरा व्यक्ति शाहजादा खुर्रम था, जिसकी श्रायु कोई सत्ताइस वर्ष की थी। दो आदमी हिन्दू राजपूत मालुम होते थे। बूढ़े ने कहा-"चो शाहजादा, यह तो अच्छा हुआ। आप ही को प्रापकी निगरानी पर जहाँपनाह ने तैनात किया है।" "पर जहाँपनाह को यह मुतलक मालूम नहीं हैं कि मैं ही सब फसाद की जड़ हूँ!" "खैर तो अब इस फसाद को जड़ को उखाड़ फेकने में देर न होनी चाहिए शाहजादा," एक राजपूत ने कहा। "तो आप चाहते क्या हैं, राजा साहेब ?" “मैं कहना चाहता हूँ कि मुग़त सल्तनत पर एक ऐसी औरत हुकूमत कर रही है, जिसकी न हम इज्जत करते हैं और न जिसे ऐसा करने का कोई-हक्क है। वह अपनी झोंक में आकर सुराल तख्त के साथ खेल कर रही है। शाहजादा, यह तख्त आपका है, इसे आप न बचाएंगे तो आप इस पर बैठ नहीं सकेंगे।" "मगर मैं क्या कर सकता हूँ ?" "इस औरत को कैद कीजिए और बादशाह को तख्त से उतार दीजिए। और आप शहनशाह हिन्द होकर रियासत की बागडोर हाथ में लीजिए। हम सब आपके साथ हैं।" "लेकिन यह क्या आसान है ?" "क्यों नहीं, आपने ही तो कहा-अगले झुमे को बादशाह खुद यहाँ आरहे हैं।" "तब " ३३