पृष्ठ:लालारुख़.djvu/४७

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सोया हुआ शहर ने अनुभव किया कि एक प्रकार की वेहोशी उन पर जा रही है। थोड़ी देर में दोनों वेहोश हो गये। सुवह उठ कर बादशाह ने अपने को अपने पलंग पर सोते पाया। वे आंखें फाड़ फाड़ कर चारों ओर देखने लगे। रात की एक एक बात उन्हें याद थी। उन्होंने अपने ख्वाजा सरा से घूछा, “रुस्तम, हम कहाँ हैं" "हुजूर जहाँपनाह, फतहपुर सीकरी के मुकाम पर अपनी ख्वाबगाह में तशरीफ रखते हैं।" "और रात भर हम कहाँ थे ? "जहाँपनाह आराम से यहीं सोते हैं "यह बात तुम इतमीनान से कह रहे हो?" "जी हाँ हुजूर, गुलाम खुद तमाम रात खिदमत में हाजिर "और तुम कहते हो, हम यहाँ से कहीं गये नहीं ?" "जी हुजूर । "कोई बाहरी आदमी भी यहाँ नहीं आया ?" "जी नहीं" "भलिका क्या जाग रही हैं ?" "जी हाँ, जहाँपनाह" "हम अभी उन्हें देखा चाहते हैं ? गुलाम ने क्षण भर में उन्हें ला हाजिर किया। बेगम के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उन्होंने कहा, "खुदा का शुक्र है, जहाँपनाह यसैरियत हैं।" "मगर तुम परेशान क्यों हो, मलिका ?"